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सभ्याः श्रूयतां-" यो गंगामतरत्तथैव यमुनां यो नर्मदां शर्मदां, का बार्ता सरिदम्बुलंघनविधेर्यश्चा. ण तोगवान् । सोस्माकं चिरपंचितोपि सहसा श्री रूपनारायण ! त्वदानांबुनिषिप्रवाहलहरीमग्नो न संभाव्यते ॥ २ ॥” इति श्रुत्वापि श्री सौवानको पुनर्लक्षं दापितवान् । वृद्ध पौशालीय पट्टायलो
श्री उदय वल्लभ सरिके पट्ट पर श्री ज्ञान सागर मूरि गुरु हुए, जो कि सत्यार्थ थे और जिन्होंने श्री विमलनाथ चरित्र, आदि अनेक नवीन ग्रन्य समूह के प्रकट करने से अपने नामको सार्थक कि. याथा। जिन श्री ज्ञानसागर मूरिके मुख से-बाद: शाह श्री खिलवो महिम्मद ग्यास दीन सुलतान की दी हुई नगदल मलिक पदवीको धारण करनेवाले, मांडवगढ के निवासी तथा व्यवहारियां में श्रेष्ठ शाई श्री संग्राम सोनीने वृत्ति सहित श्री पञ्चम अङ्ग
भगवती ) को सुनकर " गोयमा " इस प्रत्येक पद पर सुवर्णकी मुद्राएँ रखी थी इस प्रकार छतीस सहस्र सुवर्णकी मुहरें हो गई, और जिनके उपदेशसे ( उन्होंने ) उस द्रव्य के व्ययके द्वारा
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