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यहां एक बात और कहनी रह जाती है कि जिसका उल्लेख करना खास आवश्यक और प्रासंगिक है. 'ईश्वर संसारमें एक उत्तमोत्तम पद्वी है कि जिसके हर एक भव्य जंतु अपने सतत परिशीलितविशुद्ध आचरणोंसे हासिल कर सकता है । 'धनसार्थवाह' के भवमें बीजारोपण करके जीवानंदके जन्ममें उसको विशेष सींचकर और वज्रनाभके भवमें उसके मूलको खूब परिदृढ करके अर्थात् चौद लाख पूर्व-वर्ष के विशुद्ध चारित्र पर्याय और निर्निदान - निराकांक्ष-तपसे निकाचित कर जो गुणरूप सुरशाखी प्रथम तीर्थंकर श्री ऋषभदेव जी के जीवने अपने आत्माराम में लगाया था प्रतिबंधक कर्नीको क्षयकर जो सर्वज्ञस्त्र-सर्वदर्शित्व - गुरुगुण नाभिराजाके अंगजने नाप्त किया या वही आत्मबल - वहही शक्ति-सामर्थ्य - वह कारण कलाप - उनके पौत्र मरीविमें भी था. वह ऋषभनाथ प्रभुके आत्मगत केवलज्ञान केवल दर्शनादि क्षायिक भावोपगत - आविर्भूत थे. और मरीचिके भावना वह सर्व गुग खाने मणो
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