________________
परिशिष्ट २ . २८७
२२. यज्ञ-अहिंसा भावदेवपूजा है। २३. यजन-अभयदान की प्रेरक । २४. आश्वास-प्राणियों में विश्वास उत्पन्न करने वाली । २५. अमाघात–किसी भी प्राणी को न मारने का संकला । २६. विमल-पवित्रता की प्रेरक । २७. प्रभासा-दीप्ति की जननी। २८. निर्मलतर-प्राणी को विशेष निर्मल बनाने वाली, स्वयं अत्यन्त
निर्मल । आइण्ण (आकीर्ण)
'आइण्ण' आदि शब्द जन-समवसरण के बोधक हैं। ये शब्द एकत्रित होने वाले देव या मनुष्यों की विभिन्न अवस्थाओं के वाचक हैं१. आकीर्ण-एकत्रित होकर फैल जाना। २. विकीर्ण-अपनी सीमा से बाहर जाकर एकत्रित होना। ३. उपस्तीर्ण-क्रीडा करते हुए एक दूसरे को आच्छादित कर रहना । ४. संस्तीर्ण-परस्पर संश्लेष करना। "५. स्पृष्ट-आसन, शयन, रमण, परिभोग के द्वारा संशिलष्ट होना।
यद्यपि ये शब्द देवक्रीडा के प्रसंग में आये हैं और देव' समूह के विभिन्न अंगों के अभिवाचक हैं, फिर भी समूहगत मन: स्थिति के द्योतक
आउडिज्जमाण (आकुट्यमान)
'आउडिज्जमाण' आदि सभी शब्द पीड़ा देने की विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं। कुछ शब्द वाचिक रूप से पीड़ा देने का बोध कराते हैं, जैसे-तर्जना, ताड़ना आदि । कुछ शब्द शारीरिक रूप से दुःख देने के वाचक हैं, जैसे-परितापन, उपद्रवण इत्यादि।
१. मटी प १५५ : आइन्नमित्यादयः एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्शनाय ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org