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३३२ । परिशिष्ट २ विट्ठ (दृष्ट)
दृष्ट, श्रुत, ज्ञात आदि शब्द ज्ञान प्राप्त करने की विविध अवस्थाओं के वाचक हैं। दृष्ट पहली अवस्था है तथा उसकी अन्तिम
अवस्था है-उपधारण । आचारांग चूणि में इनको एकार्थक माना है । विट्टिवाय (दृष्टिवाद)
श्रुत के दो विभाग हैं—अंग और अंगबाह्य। अंग बारह हैं। उनमें बारहवां अंग है—दृष्टिवाद। आज यह अप्राप्त है। स्थानांग सूत्र में इसके दस नाम उल्लिखित हैं। वे सारे नाम उसमें प्रतिपादित विषयवस्तु के आधार पर दिये गये हैं। टीकाकार ने उनकी व्याख्या इस प्रकार की है१. दृष्टिवाद-समस्त दर्शनों के मत को प्रकट करने वाला तथा सभी
नयों से वस्तु-बोध कराने वाला। २. हेतुवाद-जिज्ञासाओं का सहेतुक समाधान देने वाला। ३. भूतवाद-यथार्थ तत्त्वों का व्याख्याता। ४. तत्त्ववाद-तत्त्वों का निरूपण करने वाला। ५. सम्यग्वाद-सम्यग् कथन करने वाला। ६. धर्मवाद-द्रव्य की विभिन्न पर्यायों का अथवा चारित्र धर्म की
व्याख्या करने वाला। ७. भाषाविजय (विचय)-भाषा का विवेक देने वाला । ८. पूर्वगत-चौदह पूर्वो का प्रतिपादक । ६. अनुयोगगत-प्रथमानुयोग तथा गंडिकानुयोग का प्रतिपादक । १०. सर्व प्राणभूतजीवसत्त्व सुखावह–संयम का प्रतिपादक होने से सभी
प्राणियों के लिए सुखकर । द्वितीयसमवसरण
चातुर्मास के अतिरिक्त शेष आठ मास का काल द्वितीयसमवसरण कहलाता है। जीण (दीन)
__ ये सभी शब्द दीन दुःखी व्यक्ति की विविध अवस्थाओं के वाचकः हैं। जैसे
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