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परिशिष्ट २ । ३६
लखमईय (लब्धमतिक)
मति का अर्थ है बुद्धि, श्रुति का अर्थ ज्ञान तथा संशा का अर्थ मानसिक अवबोध है । इस प्रकार ये तीनों शब्द ज्ञानार्थक हैं। लोभ (लोभ)
लोभ के पर्याय शब्दों में यहां सोलह शब्दों का उल्लेख है । ये सभी शब्द लोभ की उत्तरोत्तर अवस्था के द्योतक हैं।' इन शब्दों का अर्थबोध इस प्रकार हैइच्छा—किसी वस्तु के प्रति अभिलाषा । मूर्छा-प्राप्त वस्तु की रक्षा का प्रयत्न । कांक्षा-अप्राप्त की प्राप्ति का प्रयत्न । गृद्धि प्राप्त विषयों में आसक्ति । तृष्णा-अतृप्ति भाव । भिध्या-विषयों के प्रति दृढ़ अभिनिवेश । अभिध्या-पदार्थासक्ति के कारण अपने संकल्प से डिगना। आशंसना-प्रिय व्यक्ति की भौतिक समृद्धि की कामना । प्रार्थना- दूसरों की समृद्धि की याचना। लालपन-खुशामद करके इष्ट वस्तु की मांग करना । कामाशा-इष्ट रूप तथा शब्द प्राप्ति की विशेष इच्छा। भोगाशा-इष्ट गंध, रस और स्पर्श के संयोग की इच्छा । जीविताशा-जीने की उत्कट अभिलाषा। मरणाशा-विपत्ति में मरने की इच्छा । नन्दीराग-भौतिक समृद्धि की सर्वात्मना प्रबल आसक्ति ।
धम्मसंगणि में 'लोभक्लेश' के प्रसंग में लोभ के वाचक अनेक शब्दों का उल्लेख है । उसमें कुछ शब्द भगवती में निर्दिष्ट लोभ के एकार्थक के संवादी हैं जैसे-राग, नंदी, नन्दीराग, इच्छा, मुच्छा, अन्झोसान, गेधि, संग, पणिधि, आसा, आसिसना, रूपासा, लाभासा, धनासा, जीवितासा,
पत्थना, अभिज्झा इत्यादि। १. भटी पृ १०५२-५३ : लोम इति सामान्यं नाम, इच्छावयास्तव विशेषाः ।
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