Book Title: Ekarthak kosha
Author(s): Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 426
________________ परिशिष्ट २ : ३७६ तीसरा लोक होने के कारण त्रिविष्टप तथा त्रिदिव भी स्वर्ग का प्रसिद्ध नाम हैं। हंता (हत्वा) हिंसा की उत्तरोत्तर भूमिकाओं का वर्णन प्रस्तुत एकार्थक में हुमा है। लेकिन समवेत रूप में सभी शब्द एक ही अर्थ को व्यक्त करते हैं। हनन-लकड़ी आदि से मारना । छेदन-लोढे मादि से दो टुकड़े करना । भेदन-शूल बादि से छिन्न-भिन्न करना । लोपन-शरीर के अवयव का लोप करना । विलोपन-त्वचा उधेड़ना। अपद्रावण-प्राण-वियोजन करना। हक्कार (हक्कार) देखें-'रोयमाणी' । हट्टचित्त (हृष्टचित्त) हृष्टचित्त-आश्चर्य मिश्रित प्रसन्नता, अथवा बाहर से पुलकित होना । तुष्टचित्त-संतोष से उत्पन्न खुशी, मान्तरिक प्रसन्नता।' आनन्दित-स्मित हास्य एवं सौम्यता। नन्दित-समृद्धि से प्राप्त प्रसन्नता। प्रीतिमन-प्रीतियुक्त प्रसन्नता। परमसौमनस्यिक-परम प्रसन्न मन वाला। हर्षवशविसर्पदहृदय-हर्ष से उत्फुल्ल हदय वाला। प्रसन्न मानसिक स्थिति में तरतमता होने पर भी टीकाकार ने इनको एकार्थक माना है।' १. उशाटी प ४४१ हृष्टाः बहिः पुलकादिमन्तः, तुष्टा आन्तरिक प्रीति भाजः। २. (क) औपटी ५४३ : सर्वाणि चैतानि हष्टाविपदानि प्रायः एकार्थानि । (स) मटी प ११९ : एकाधिकानि वैतानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्था नीति। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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