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३५२ । परिशिष्ट २ पूयणट्ठि (पूजनार्थिन्)
पूजा, यश, मान और सम्मान-इन चारों में शब्दगत अर्थभेद होने पर भी सामान्यतः ये एकार्थक हैं । अक्षत आदि से अर्चना करना पूजा है । वाचिक स्तुति करना यश, वंदना करना, आने पर खड़ा होना मान तथा वस्त्र आदि देना सम्मान है। इस प्रकार सम्मान व्यक्त करने
के अर्थ में चारों शब्द एकार्थक हैं । पोग्गलत्थिकाय (पुद्गलास्तिकाय)
भगवती सूत्र में षड्द्रव्य के अभिवचन के प्रसंग में पुद्गलास्तिकाय के अभिवचनों का उल्लेख है । इसमें प्रारम्भ के दो शब्द-पुद्गल और पुद्गलास्तिकाय-ये इसके वास्तविक पर्याय हैं । शेष द्विप्रदेशीस्कन्ध से लेकर अनन्तप्रदेशीस्कन्ध तक के सारे शब्द पुद्गल की विभिन्न
अवस्थाओं के वाचक हैं। प्रकृति (प्रकृति)
प्रकृति, प्रधान और अव्यक्त-ये तीनों शब्द एकार्थक माने गए हैं। सांख्य के २४ तत्वों में प्रधान तत्त्व को प्रकृति एवं अव्यक्त भी कहा है। मूल तत्व होने से सांख्य दर्शन में प्रकृति को प्रधान तत्त्व माना है । इसे अव्यक्त भी कहा जाता है क्योंकि महान् आदि व्यक्त तत्त्वों की तुलना में वह अव्यक्त है । महान् आदि विकृतियों की तुलना में प्रकृति शब्द
व्यवहृत होता है। इस प्रकार तीनों शब्दों के अभिवचन सार्थक हैं । प्रथमसमवसरण (प्रथमसमवसरण)
चातुर्मास का प्रथम दिन सावन बदी एकम होता है । यह धर्म परिषद् के एकत्रित होने का प्रथम दिन है तथा इसी दिन से जैन संवत् शुरु होता है, अत: वर्षावास को प्रथमसमवसरण कहते हैं । अवग्रह का अर्थ है-स्थान । ज्येष्ठ अर्थात् प्रधान । चातुर्मास साधुओं के लिए एक स्थान पर रहने का सबसे बड़ा काल होता है अतः इसे ज्येष्ठावग्रह कहते हैं । चातुर्मास में मुनि एक स्थान पर चार महीने रहता है और शेष आठ महीने वह कहीं पाच दिन, कहीं दस दिन और कहीं एक मास रह सकता है। चार मास वह कहीं नहीं रह सकता है।
चार मास का काल ज्येष्ठ बड़ा होता । अतः इसे ज्येष्ठावग्रह कहते हैं। फासिय (स्पृष्ट)
‘फासिय' आदि सातों शब्द व्रत-पालन की उत्तरोत्तर अवस्थाएं हैं,
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