Book Title: Ekarthak kosha
Author(s): Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 403
________________ परिशिष्ट २ ये सभी नाम भिक्षु के विभिन्न गुणों के आधार पर प्रचलित हैं । पाषण्डी, मुनि, प्रज्ञापक, बुद्ध, विदु आदि शब्द भिक्षु की ज्ञान चेतना को व्यक्त करते हैं । इसी प्रकार व्रती, क्षान्त, दान्त, विरत, यति, प्रव्रजित, संयत, साधु, तपरत, संयमरत आदि शब्द संयम चेतना के द्योतक हैं । तथा मुक्त, अगार, तीर्ण, द्रव्य, निर्ग्रन्थ, भवान्त, क्षपक, तीरार्थी आदि शब्द साधु की मोहरहित वीतराग चेतना के आधार पर प्रचलित हैं । भीय (भीत) ३५६ भयभीत के अर्थ में चारों शब्द एकार्थक हैं। इनका आशय इस प्रकार है— भीत — डरपोक | त्रस्त - क्षुब्ध, एवं भय के कारण पसीने से तरबतर । उद्विग्न-चिन्ता से भयभीत । भूमि (भूमि) देखें - 'थेरभूमि' | मेसण ( भेषण) 'भेसण' आदि शब्द भयभीत करने के अर्थ में प्रयुक्त हैं १. भेषण - डराना । २. तर्जन — अंगुली निर्देश पूर्वक डांटते हुए भयभीत करना । - ३. ताडन - लकडी आदि से पीटते हुए डराना । भोज्ज (भोज्य) भोज और संखडि – ये दोनों जीमनवार के प्रतीक हैं। 'संखडि' जीमनवार के अर्थ में प्रयुक्त देशी शब्द हैं । संखडि शब्द का शाब्दिक अर्थ है - हिंसा । जीमनवार में हिंसा होती है, इसलिए इसे 'संखडि' कहा जाता है । इसका दूसरा अर्थ संस्कृति भी किया जा सकता है, क्योंकि भोज आदि में अन्न का संस्कार किया जाता है— पकाया जाता है। १. विपाटी प ४३ : भीया २. दस. पृ ३६२ । Jain Education International इति भयप्रकर्षाभिधानायैकार्थाः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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