Book Title: Ekarthak kosha
Author(s): Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 407
________________ ३६. । परिशिष्ट २ ६. जिह्म-बगुले की भांति वंचनापूर्ण व्यवहार करना । १०. किल्बिष-किल्विषी देव की भांति कपटपूर्ण आचरण करना । ११. आचरण-किसी को छलने के लिए नाना प्रकार की कपटपूर्ण चेष्टाएं करना। १२. गृहन-कपटाई करके अपने स्वरूप को छिपाना । १३. वंचन-दूसरों को पूरी तरह ठगना । १४. प्रतिकुञ्चन-दूसरों द्वारा सरलभाव से कहे वचन का खंडन करना तथा अपनी असत्य बात को अच्छे शब्दों में प्रस्तुत करना । १५. सातियोग-मिलावट करना व कूट-माप-तौल करना। प्रस्तुत एकार्थक में माया, उपधि और निकृति तक के शब्दों में मानसिक माया, वलय और गहन में वाचिक माया तथा नूम से साति योग तक के सभी शब्दों में माया कार्यरूप में परिणत हो जाती है । मित्त (मित्र) स्वजन आदि मित्र के अन्तर्गत ही होते हैं। अतः स्वजन के विभिन्न अंग ज्ञाति, सम्बन्धी आदि को भी मित्र के अन्तर्गत लिया है। इन शब्दों की अर्थवत्ता इस प्रकार हैमित्र-स्नेही। ज्ञाति-समान जाति वाला। निजक-पितृव्य आदि निकट सम्बन्धी । सम्बन्धी-सास, श्वसुर आदि । परिजन-दास-दासी आदि । वयस्क-समान वय का मित्र। . सखा-हर क्रिया साथ में करने वाला। सुहृद्-हमेशा साथ में रहने वाला तथा हितकारी सलाह देने वाला। सांगतिक --संगति मात्र से होने वाला मित्र । घाडिय-सहयोगी (दे)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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