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३४६ : परिशिष्ट २
और विशेष भेद का प्रतिपादक है। टीकाकारों ने सामान्य धर्मों केआधार पर भी शब्दों को एकार्थक माना है । '
आवश्यक निर्युक्ति में सूत्र, अर्थ और प्रवचन तीनों को एकार्थक मानते हुए भी भिन्न-भिन्न रूप से इनके ५-५ एकार्थक दिये हैं ।' सूत्र व्याख्येय और अर्थं व्याख्यान होने से दोनों भिन्नार्थक हैं, किन्तु प्रवचन का अंग होने से एकार्थक भी हैं । भाष्यकार ने इसी बात को फूल HTT कली के माध्यम से समझाया है । अर्थ और अनुयोग — ये दोनों एकार्थंकशब्द हैं ।' विशेष व्याख्या के लिए देखें - विभामहेटी पृ ५०४-५०७ ।
देखें - 'सुत्त', 'अणुओग' ।
पवेइय ( प्रवेदित)
'पवेइय' आदि तीनों शब्द सम्यक् प्ररूपण के अर्थ में प्रयुक्त किये गये हैं । इनका सूक्ष्म अर्थ-भेद इस प्रकार हैप्रवेदित-अच्छी तरह ज्ञात, विविध रूप से कथित ।
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सुआख्यात -- भली-भांति विवेचित ।
सुप्रज्ञप्त - अनुभव के आधार पर कथित । *
पव्वइय ( प्रव्रजित )
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प्रव्रजित का अर्थ है - दीक्षित अर्थात् मुनि । जो मुनि होता है वह संयम, संवर तथा समाधि से युक्त होता ही है। मुनि का शरीर परुष, कठोर और स्निग्धता से शून्य होता है तथा मन भी स्नेह शून्य होता है अतः वह रुक्ष कहलाता है अथवा जो कर्ममल का अपनयन करता है, वह लूष या रूक्ष है । वह संसार का पार पाने के कारण तीरार्थी कहलाता है। मुनि श्रुताध्ययन के साथ तपस्या करता है इसलिए उपधानवान्, विभिन्न तपस्याओं में रत रहने के कारण तपस्वी और कर्मक्षय के लिए उद्यत रहने के कारण दुखः क्षपककहलाता है । "
१. विभामहेटी पृ ५०६ ।
२. विभा १३६६ : एगट्टियाणि तिन्नि उ पवयण सुत्तं तहेव अत्यो य । एक्केक्स्स य एत्तो नामा एगट्टिया पंच ॥
३. विभामहेटी पृ ५०६ : अर्थ: व्याख्यानमनुयोग इत्यनर्थान्तरम् ।
४. दशजिचू पृ १३२ ।
५. स्थाटी प १७४ ।
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