Book Title: Ekarthak kosha
Author(s): Mahapragna Acharya, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 394
________________ व्यव्वाविय ( प्रव्राजित) 'पव्वाविय' आदि चारों शब्द प्रव्रज्या की उत्तरोत्तर अवस्था के द्योतक हैं । इनका अर्थबोध इस प्रकार है— प्रव्राजित - शिष्य के रूप में स्वीकार करना । मुण्डापित - शिष्य बनाना, दीक्षित करना । सेधितव्रतों का आरोपण करना । शिक्षापित - सूत्र और अर्थ की वाचना देना । पाण (प्राण) प्राण आदि शब्द जीव तत्त्व के वाचक होने पर भी इनमें जातिगत भेद है । जैसे प्राण-द्वीन्द्रिय आदि । भूत - वनस्पति | परिशिष्ट २ ३४७ सत्त्व - पृथ्वी, अप् आदि । जीव -- पञ्चेन्द्रिय प्राणी । प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ता, भूताश्च तरवः स्मृताः । जीवाः पञ्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥ देखें - 'जीवत्थि काय' । पाणवह (प्राणवध) प्रस्तुत प्रकरण में प्राणवध के लगभग सभी नाम गुण निष्पन्न हैं । ये सभी नाम प्राणवध की भावना के निकट तथा उसकी विभिन्न अवस्थाओं के द्योतक हैं । प्रत्यक्षतः जीवहिंसा के द्योतक न होने पर भी उसकी ओर अभिमुख करने वाली प्रवृत्तियों के वाचक होने से एकार्थंक हैं । जैसे - 'जीवितान्तकरण' 'व्युपरमण' 'उन्मूलना' 'परितापनआस्तव', निर्यापना, घातना, मारणा, उपद्दवण, विच्छेद, आरंभ, समारंभ 'कटकमर्दन' आदि शब्दों को कार्य में कारण का उपचार मानकर एकार्थक मान लिया है । प्रस्तुत नामों की सूची में तीसरा नाम है - अवीसंभ ( अविश्रम्भ) अर्थात् अविश्वास । प्राणवध में प्रवृत्त व्यक्ति जीवों के लिए अविश्वसनीय बन जाता है अतः अविश्वसनीयता भी एक दृष्टि से हिंसा ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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