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३३६ , परिशिष्ट २
माधुकरी वृत्ति का द्योतक है । मुनि गाय की तरह अनेक घरों से थोड़ाथोड़ा ले । वह त्वक की तरह असार भोजन ले । वह उंछ-अज्ञातपिण्ड ले । जो स्वामी अशुद्ध भोजन देना चाहे, उसे मृदुता से समझाए । वह सर्प की भांति एक दृष्टि वाला हो। जैसे व्रण पर बिना किसी राग द्वेष से लेप किया जाता है, वैसे ही मुनि भी बिना राग-द्वेष के भोजन करे । जैसे बाण (इषु) लक्ष्य का वेध डालता है, वैसे ही भिक्षु लक्ष्य प्राप्ति के लिए भोजन करे। जैसे लाख के गोले का निर्माण अग्नि से न अति दूर और न अति निकट रखकर ही किया जाता है वैसे ही मुनि-गृहस्थ सहवास से न अति दूर रहे और न अति निकट रहे। मुनि भोजन का अस्वाद लेते हुए निरपेक्ष भाव से 'पुत्र मांस भक्षण' की भांति खाए । मुनि संयम निर्वहण के लिए जैसा मिले वैसा खा ले।'
इन उपमाओं से मुनि की माधुकरी वृत्ति को उपमित किया जाता है। इस दृष्टि से ये दशवकालिक के प्रथम अध्ययन के नाम हैं। देव (देव)
___ 'देव' आदि शब्द देवता के स्पष्ट वाचक होने पर भी इनका निरुक्त कृत अर्थ इस प्रकार हैदेव-जो क्रीड़ा करते हैं अथवा जो दिव/आकाश में रहते हैं। अमर-जो कभी मरते नहीं हैं। (चिरकाल तक स्थायी रहने के कारण
अमर शब्द देव के लिए रुढ है)। सुर-जो अत्यन्त सुशोभित होते हैं । अथवा समुद्र-मंथन के समय
जिन्होंने सुरा का पान किया था। विबुध-जो अवधिज्ञान से विशेष जानते हैं।' देसकालण्ण (देशकालज्ञ)
'देसकालण्ण' आदि सभी शब्द साधु के विशेषण के रूप में प्रयुक्त हैं । भावार्थ में एक ही व्यञ्जना होने पर भी इनका अर्थभेद इस प्रकार
देशकालज्ञ-देश और काल को जानने वाला। १. दश जिचू पृ ११-१२ : एतेहिं उवम्म कोरइ ति काउं ताणि भण्णंति
नामाणि तस्स अज्झयणस्स । २. दशजिचू पृ १५ : वीवं आगासं तंमि आगासे जे वसंति ते देवा । ३. अचि पृ १७-१८ । ४. सूचू २ पृ ३१२ एगट्टिताई वा सव्वाइं एयाई ।
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