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३१६ । परिशिष्ट २ चेयण्ण (चैतन्य)
जैन धर्म-परम्परा में यह मान्यता है कि सभी जीवों में अक्षर (चेतना) का अनन्तवां भाग नित्य उद्घाटित रहता है। यह जीवत्व का नियामक तत्त्व है। यदि यह न हो तो जीव और अजीव में कोई अन्तर नहीं रह पाता। प्रस्तुत प्रसंग में अक्षर का अर्थ है-चैतन्य । उपयोग
चैतन्य की प्रवृत्ति है । इस प्रकार ये तीनों शब्द एकार्थक हैं।' छज्जिय (दे)
छज्जिय आदि तीनों शब्द टोकरी के अर्थ में प्रयुक्त देशी शब्द हैं । आजकल प्रसिद्ध 'छाबड़ी' शब्द छज्जिय का ही अपभ्रंश लगता है। छन्द (छन्द)
छन्द, वेद और आगम भिन्नार्थवाची होने पर भी भावार्थ में एकार्थक हैं। धर्मशास्त्र के छः अंग हैं, उनमें छंद का चौथा स्थान है। जिससे धर्म जाना जाता है वह वेद है तथा जो आप्त पुरुषों से प्राप्त होता है वह आगम है। इस प्रकार तीनों ही शब्द आगम/धर्मशास्त्र के
बोधक हैं। छिद्द (छिद्र)
छिद्र का सामान्य अर्थ है-छेद, विवर । छिद्र का एक अर्थ अवसर भी होता है। छिद्रान्वेषी या घात करने वाला व्यक्ति अनेक प्रकार से छिद्रों (अवसरों) की अन्वेषणा करता है। छिद्र आदि शब्द उसी के द्योतक हैंछिद्र-अकेलापन । अन्तर-अवसर। विरह-एकान्त, विजनस्थान ।
उपासकदशा ८/१६ में रेवती के प्रसंग में ये तीनों शब्द व्यवहृत हैं । रेवती अपनी सौतों की घात के लिए अन्तर्, छिद्र और विरह की
अन्वेषणा करती है। ये तीनों शब्द 'अवसर' के वाचक हैं। छेय (छेक)
कुशल व्यक्ति के लिए यहां छेक आदि शब्दों का उल्लेख हुआ है ।। १. दश जिचू पृ ४६ ।
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