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परिशिष्ट २ । ३१६ नस (यशस्)
यश का सामान्य अर्थ है-कीति । वर्ण का तात्पर्य है-प्रशंसा तथा संयम का अर्थ है नियंत्रण । व्यवहार टीका में भगवती सूत्र (४१/१६) में आये आयजस का अर्थ आत्मसंयम किया गया है । तथा यश, संयम और वर्ण को एकार्थक माना है।' हरिभद्र ने भी यश शब्द
का अर्थ संयम किया है।' जावंताव (यावत्तावत्)
स्थानांग सूत्र में दस प्रकार के संख्यान/गणित का वर्णन है। इसमें जावंताव (यावततावत) छठा संख्यान है। गुणकार इसका पर्याय नाम है । पहले जो संख्या सोची जाती है, उसे गच्छ कहते हैं। इच्छानुसार गुणन करने वाली संख्या को वाञ्छा या इष्ट संख्या कहते हैं। गच्छ संख्या को इष्ट संख्या से गुणन करते हैं। उसमें फिर इष्ट संख्या मिलाते हैं । उस संख्या को पुनः गच्छ से गुणा करते हैं। तदन्तर गुणनफल में इष्ट के दुगुने का भाग देने पर गच्छ का योग आता है। इस प्रक्रिया को यावत्तावत् कहते हैं। उदाहरणार्थ
कल्पना करें कि गच्छ १६ है, इसको इष्ट १० से गुणा किया१६४१० =१६० इसमें पुनः इष्ट १० मिलाया (१६०+१०=१७०) इसको गच्छ से गुणा किया (१७०४१६=२७२०) इसमें इष्ट की दुगुनी संख्या से भाग दिया २७२०:२०=१३६, इस वर्ग को पाटी
गणित भी कहा जाता है।' जीवत्थिकाय (जीवास्तिकाय)
जीव के अभिवचन/पर्याय २३ हैं। ये जीव की विभिन्न क्रियाओं, अवस्थाओं के आधार पर उल्लिखित हैं, जैसेविज्ञ-जो सब कुछ जानता है । वेद-जो सुख-दुःख का संवेदन करता है।
१. व्यमा ६ टो प ५६ । २. बशहाटीप १८ । यशः शब्देन संयमोऽभिधीयते । ३. स्थाटी ५४७१।
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