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१२० । परिपिष्ट २
चेता-कर्म पुद्गलों का चय/उपचय करने वाला। जेता-कर्म रिपु को जीतने वाला। रंगण-राग-आसक्ति से युक्त ।। हिंडुक-एक गति से दूसरी गति में जाने वाला। पुद्गल-शरीर आदि पुद्गलों का चय-अपचय करने वाला। मानव-अनादि होने से जो नया नहीं है । कर्ता-कर्मों को करने वाला। विकर्ता-कर्मों का छेदन करने वाला। जगत्-निरन्तर गतिशील। जंतु-जननशील । योनि-दूसरों को उत्पन्न करने वाला। स्वयंभू-स्वयं पैदा होने वाला। सशरीरी-शरीर के साथ रहने वाला । अंतरात्मा-जो चेतनामय है, पुद्गलमय नहीं।
इस प्रकार सभी अभिवचन जीव को परिभाषित करते हैं।'
जीव आदि के लिए देखें-'पाण' । जीवाभिगम (जीवाभिगम)
यह दशवकालिक के चतुर्थ अध्ययन का नाम है। नियुक्तिकार ने इसके सात पर्यायवाची नाम गिनाते हुए उनकी सार्थकता का प्रतिपादन किया है१. जीवाभिगम । इस अध्ययन में जीव और अजीव के लक्षणों का २. अजीवाभिगम सुन्दर निरूपण है । ३. आचार-षड्जीवनिकाय के प्रति मुनि के आचार का निरूपक ।
४. धर्मप्रज्ञप्ति-भगवान् महावीर की धर्म प्रज्ञापना का मूल । .. ५. चारित्र-धर्म-इसमें चारित्र-धर्म महाव्रतों का सांगोपांग वर्णन है ।
६. चरण-मुनि के मूल नियमों का प्रतिपादक । १. भटी पृ १४३२।
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