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परिशिष्ट २ : २० आधार पर इसके आठ नाम हैं। इन नामों की सार्थकता इस प्रकार
मेघराजि-यह काले मेघ के समान कृष्ण वर्ण वाली। मघा )
है-छठी और सातवीं नरक की भांति सघन अंधकारमय । माघवती वातपरिघ-वायु के लिए अर्गला के समान । इसमें से वायु भी प्रवेश
नहीं कर सकती। वातपरिक्षोभ-प्रवेश न देने के कारण वायु को क्षुब्ध करने वाली। देवपरिध-देवताओं के लिए अर्गला के समान ।
देवपरिक्षोभ-देवताओं के क्षोभ का हेतु । कमल (कमल)
देखें-'उप्पल'। कम्म (कर्मन्)
कर्म आत्मा को मलिन करते हैं । इस आधार पर कर्म के कुछ नाम मलिनता के वाचक हैं जैसे-पणग, पंक, मइल्ल, कलुष, मल इत्यादि । कर्म दुःख परम्परा का मूल है अतः कारण में कार्य का उपचार कर खुह, असात, क्लेश, दुप्पक्ख आदि शब्द कर्म के वाचक हैं। संपराय का अर्थ है--संसार । कर्म संसार का कारण है। इसे प्रकम्पित किया जाता है, इसलिए धुत्त भी इसका पर्याय है। मइल्ल, वोण्ण आदि शब्द इसी
अर्थ में देशी हैं। करोडक (दे)
करोडग आदि शब्द विभिन्न प्रकार के छोटे-बड़े कटोरे के वाचक हैं । जैसे-गोल, चपटा, चतुष्कोण कटोरा इत्यादि । कसाय (कषाय) - कषाय का अर्थ है-आत्मा का रागद्वेषात्मक उत्ताप, परिणति ।।
भाव और पर्याय भी आत्म-परिणाम के वाचक हैं । कसिण (कृत्स्न)
'कसिण' आदि चारों शब्द परिपूर्णता के द्योतक हैं१. भटी १२६१ ।
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