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परिशिष्ट २ : २६३ करने वाला अथवा इन्द्रिय, कषाय आदि शत्रुओं को वश में करने
वाला। २. आवासक-गुणों से आत्मा को भावित करने वाला। ३. ध्रुवनिग्रह–अनादि संसार का निग्रह करने वाला। ४. विशोधि-कर्म-मलिन आत्मा को विशुद्ध करने वाला। ५. अध्ययनषट्वर्ग–सामायिक, चतुर्विशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण कायो
त्सर्ग और प्रत्याख्यान-इन छह अध्ययनों से युक्त। ६. न्याय-अभीष्टार्थ की सिद्धि में सहायक । ७. आराधना-मोक्ष की आराधना का हेतु ।
८. मार्ग-मोक्ष तक पहुंचाने का मार्ग। आसंदग (आसंदक)
पादपीठ के अर्थ में 'आसंदग' शब्द के पर्याय में चार शब्दों का उल्लेख है । यद्यपि इन चारों में आकार-प्रत्याकार कृत भिन्नता है लेकिन सभी आसन विशेष का अर्थ व्यक्त करते हैं, अतः ये एकार्थक हैं। निशीथ
चूणि में काष्ठमय आसन्दक का उल्लेख मिलता है। आसुरत्त (आसुरत्व)
___ कोपातिशय को प्रकट करने के लिए 'आसुरत्त' आदि शब्द एका. र्थक हैं । लेकिन इनका अवस्था कृत भेद इस प्रकार हैआसुरत्व-शीघ्र कुपित होना, असुर की भांति कोप करना । रुष्ट-रोष युक्त रहना। कुपित-मानसिक क्रोध । चांडिक्य-चेहरे पर कठोरता के भाव प्रकट होना । मिसिमिसेमाण-क्रोधाग्नि से जलना । इस अवस्था में व्यक्ति की आंखें
व मुंह लाल हो जाता है। आहाकम्म (आधाकर्मन्)
साधुओं को लक्ष्य कर की जाने वाली पचन-पाचन की प्रवृत्ति १. उपाटी पृ १०५ : एकार्थाः शब्दाः कोपातिशयप्रदर्शनार्थाः ।
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