Book Title: Chahdhala 1
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

View full book text
Previous | Next

Page 27
________________ छहढाला २५ अगृहीत चारित्र इन जुत विषयनि में जो प्रवृत्त, ताको जानो मिथ्या चरित्र । यो मिथ्यात्वादि निसर्ग जेह, अब जे गृहीत सुनिये सु तेह ||८|| शब्दार्थ — इन जुत = अगृहीत मिथ्यादर्शन, ज्ञान सहित । विषयनि में पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्त = प्रवृत्ति करना । मिथ्याचारित्र = अगृहीत मिथ्याचारित्र । यों = इस प्रकार । मिथ्यात्वादि = मिध्यादर्शन, ज्ञानचारित्र । निसर्ग = अगृहीत जेह जो गृहीत = पर निमित्त से हुए तेह = | = । उसको | H | अर्थ - अगृहीत मिथ्यादर्शन सहित पाँचों इन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति करना अगृहीत मिथ्याचारित्र है। इस प्रकार गृहीत मिथ्यादर्शन का वर्णन करते हैं, सो सुनो । प्रश्न – अगृहीन मिथ्याचारित किसे कहते हैं ? उत्तर - अगृहीत मिथ्यादर्शन ज्ञानपूर्वक पंचेन्द्रियों के विषयों में प्रवृत्ति को अगृहीत मिथ्याचारित्र कहते हैं । गृहीत मिथ्यादर्शन, कुगुरु एवं कुदेव, कुधर्म का लक्षण जो कुगुरु कुदेव कुधर्म सेव, पोषै, चिर दर्शनमोह एव । अन्तर रागादिक धरै जेह, बाहर धन अम्बर तैं सनेह ।। १ ।। धारे कुलिंग लहि महत भाव, ते कुगुरु जन्म जल उपलनाव । जे राग-द्वेष पल कर मलीन, वनिता गदादि जुत चिह्न चीन ।।१०।। ते हैं कुदेव तिनकी जु सेव, शठ करत न तिन भव भ्रमण छेव । रागादि भाव हिंसा समेत, दर्वित त्रस थावर मरण खेत ।।११।। जे क्रिया तिन्हें जानहु कुधर्म, तिन सरौं जीव लहै अशर्म । याकूँ गृहीत मिथ्यात्त्व जान, अब सुन गृहीत जो है अज्ञान ।। १२ ।। शब्दार्थ - अन्तर = भीतर रागादिक = राग-द्वेष आदि । जेह = जो I = 4 बाहर = प्रत्यक्ष में । अम्बर तैं कुलिंग = खोटा भेष । धारै = महतभाव = बड़प्पन । ते = वे उपल = पत्थर | नाव = नौका वस्त्र आदि से । सनेह धारण करते हैं । जन्म जल = मलकर = मैल से । मलीन वनिता = स्त्री । गदादि = गदचक्र बगैरह | चिह्न - पहचान 1 = ममता । । लहि = पाकर | संसाररूपी समुद्र में । मैले ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118