Book Title: Chahdhala 1
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 117
________________ छहढ़ाला जिन परमपैनी सुबुधि छैनी, डारि अन्तर भेदिया । वरणादि अरु रागादि तें, निजभाव को न्यारा किया ।। निज माहिं निज के हेतु निज कर, आपमें आपै गह्यो । गुण गुणी ज्ञाता ज्ञान ज्ञेय, मँझार कछु भेद न रह्यो ।।८।। जहँ ध्यान ध्याता ध्येय को, न विकल्प वच भेद न जहाँ । चिद्भाव कर्म चिदेश करता, चेतना किरिया तहाँ ।। तीनों अभिन्न अखिन्न शुध, उपयोग की निश्चल दसा । प्रगटी जहाँ दृग-ज्ञान-व्रत , तीनधा एक लसा ।।९।। परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखै । दृग ज्ञान सुख-बल-मय सदा, नहिं आन भाव जु मरे वखें।। मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनिः । चितपिंड चंड अखंड सुगुण-करंड च्युत पुनि कलनिः ।।१०।। यो चिन्त्य निज में थिर भये, तिन अकथ जो आनंद लह्यो । सो इन्द्र नाग नरेन्द्र वा, अहमिन्द्र के नाहीं कह्यो ।। तब ही शुकल ध्यानाग्नि करि, चउघाति विधि कानन दह्यो । सब लख्यो केवलज्ञान करि, भविलोक को शिवमग कह्यो ।।११।। युनि घाति शेष अघातिविधि, छिनमाँहि अष्टम भू बसे । वसु कर्म विनसे सुगुण वसु, सम्यक्त्व आदिक सब लसे ।। संसार खार अपार पारावार, तरि तीरहिं गये । अविकार अकल अरूप शुचि, चिद्रूप अविनाशी भये ।।१२।। निजमाँहि लोक अलोक गुण, परजाय प्रतिबिम्बित थये ! रहि हैं अनन्तानन्त काल, यथा तथा शिव परणये ।। धनि धन्य हैं जे जीव नरभव, पाय यह कारज किया । तिनही अनादि भ्रमण पंच- प्रकार तजि वर सुख लिया ।।१३।।

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