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छहढ़ाला जो कर्म नहीं आते हैं उसे संवर कहते हैं । उसका सदा आदर करना चाहिए । तप के प्रभाव से कर्मों का एकदेश दूर होमा निर्जरा कहलाती हैं, उसको हमेशा प्राप्त करना चाहिए ।
प्रश्न १–आत्मा को नितर दुःख देनेवाले कौन हैं ? उनका क्या करना चाहिए ?
उत्तर-मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग—ये आस्त्रव आत्मा को दुःख देते हैं, अत: उनका त्याग करना चाहिए ।
प्रश्न २–बन्ध किसे कहते हैं ?
उत्तर---जीव के प्रदेशों और कर्म परमाणुओं का परस्पर एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध हो जाना बन्ध है ।
प्रश्न ३.--संवर तत्त्व का लक्षण बताइए ? उत्तर-"शम दम तें जो कर्म न आवें, सो संवर"
कषायों को शमन और इन्द्रियों का दमन संवर कहलाता है । प्रश्न ४-निर्जरा तत्त्व का लक्षण बताइए ? उत्तर--तप के प्रभाव से कर्मों का एकदेश दूर होना निर्जरा कहलाती है।
मोक्ष तत्त्व, व्यवहार सम्यक्त्व एवं उसके कारण सकल कर्मतें रहित अवस्था, सो शिवथिर सुखकारी । इहि विधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी ।। देव जिनेन्द्र गुरु परिग्रह विन, धर्म दयाजुत सारो। ये ही मान समकित को कारण, अष्ट अंग जुत धारो ।।१०।।
शब्दार्थ—सकल = सम्पूर्ण । कर्म = कर्मों से । अवस्था = हालत । थिर = स्थिर । परिग्रह बिन = परिग्रह रहित । दयाजुत = दयामयी । सारो = श्रेष्ठ । समकित = सम्यग्दर्शन | अष्ट अंगजुत = आठ अंग सहित ।
अर्थ—सम्पूर्ण कार्यों से रहित जीव की शुद्ध अवस्था मोक्ष है । वह स्थिर सुख को देनेवाली है । इस प्रकार जो सात तत्त्वों का श्रद्धान है यह व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है । वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशी, सच्चे देव अन्तरंग बहिरंग परिंग्रह रहित वीतराग गुरु, श्रेष्ठ अहिंसामयी जैनधर्म ये ही