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छहढाला
सोना । काँच = शीशा । अर्घावतारन = अर्घ्य चढ़ाना ! असि प्रहारन = तलवार मारना । समता = राग-द्वेष नहीं होना । अर्थ---- (१) मुनि स्नान नहीं करते हैं ।
(२) दतौन नहीं करते हैं। (३) रंचमात्र भी कपड़ा शरीर पर नहीं रखते है । (४) रात्रि के पिछले भाग में जमीन पर एक ही करवट से
थोड़ी नींद लेते हैं। (५) दिन में एक बार खड़े होकर थोड़ा सा आहार लेते हैं । (६) अपने हाथों में ही आहार लेते हैं । (७) केशलुंच करते हैं, अपनी आत्मा के ध्यान में लीन
रहते हुए परीषहों से नहीं डरते हैं। वे मनिराज शत्र, मित्र, मकान, श्मशान, सोना, काँच, निन्दा करने वाले, स्तुति करनेवाले या तलवार मारनेवाले में हमेशा समता भाव धारण करते हैं।
मुनियों के कर्तव्य एवं स्वरूपाचरण चारित्र तप तपै द्वादश घरै वृष दश, रत्नत्रय सेवै सदा । मुनि साथ में या एक विचरे, चहैं, नहिं भव सुख कदा ।। यों है सकल संयम चरित्र, सुनिये स्वरूपाचरण अब । जिस होत प्रगटै आपनी निधि, मिटै परकी प्रवृत्ति सब ।।७।।
शब्दार्थ-तपै = तपते हैं । द्वादश = बारह । धरै = धारण करते हैं । वृष दश = दश धर्म । रत्नत्रय = सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र । सेवै = सेवन करते हैं । एक = अकेले । विचरें = विहार करते हैं । चहैं = चाहते हैं । भव-सुख = संसार के सुख । कदा = कभी भी । जिस होत = जिसके होने पर । प्रकट = प्रकाशित होती है । निधि = सम्पत्ति । मिटै = नष्ट होती है । परकी = पर द्रव्यों की ।
अर्थ-मुनिराज बारह तप तपते हैं । दस धर्मों को धारण करते हैं । मुनियों के साथ में या अकेले ही विहार करते हैं तथा कभी भी संसार के सुखों को नहीं चाहते हैं । इस प्रकार सकल संयम चारित्र हैं । अब .