Book Title: Chahdhala 1
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Bharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad

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Page 100
________________ छहढ़ाला परमाण नय निक्षेप को, न उद्योत अनुभव में दिखे । दग-ज्ञान सुख-बलमय सदा, नहिं आनभाव जु मो विखें ।। मैं साध्य साधक मैं अबाधक, कर्म अरु तसु फलनिः । चितपिंड चंड अखंड सुगुण, करंड च्युत पुनि कलनिः ।।१०।। शब्दार्थ-परमाण . .: संग्ज्ञान । ना . एकदेश । निक्षेप = न्यास या ज्ञेय वस्तु । उद्योत - प्रकाश । अनुभव = उपयोग । आन = अन्य । मो विखें = मुझमें । साध्य = साधने योग्य, साधना करनेवाला । अबाधक = बाधा रहित । चितपिण्ड = चेतना रूप । चंड = प्रतापी । अखंड = भेद रहित । सुगुण करंड = उत्तम गुणों का पिटारा । च्युत = रहित । कलनितें = पापों से । अर्थ----स्वरूपाचरणचारित्र के समय मुनियों के प्रमाण, नय और निक्षेपों का प्रकाश अनुभव में नहीं दिखता है, किन्तु ऐसा विचार होता है कि मैं अनन्तदर्शन, अनन्तज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य रूप हूँ । अन्य रागद्वेष आदि भाव मुझमें नहीं हैं । मैं साध्य हूँ, मैं साधक हूँ, मैं कर्म और उनके फलों से बाधा रहित हूँ । चैतन्य पिण्ड हूँ, तेजस्वी हूँ, टुकड़े रहित हूँ और उत्तमोत्तम गुणों का खजाना हूँ | पापों या कर्मों से रहित हूँ। प्रश्न १-प्रमाण किसे कहते हैं ? उत्तर--वस्तु के सर्वांशों को जाननेवाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है । प्रश्न २-नय किसे कहते हैं ? . उत्तर-वस्तु के एकदेश को जाननेवाला ज्ञान नय कहलाता है । प्रश्न ३--साध्य क्या है ? उत्तर-रत्नत्रय की एकता साध्य है । प्रश्न ४---साधक कौन है ? उत्तर--संसारी जीव साधक है । प्रश्न ५ –स्वरूपाचरणचारित्र में साध्य-साधक बाधकादि भेद हैं या नहीं ? उत्तर--स्वरूपाचरण चारित्र में आत्मा स्वयं ही साध्य है, स्वयं ही साधक हैं । अभेद अवस्था की प्राप्ति यहाँ होती हैं ।

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