________________
छहढ़ाला कविना दौलतरापजी !
सोरठा तीन भुवन में सार, वीतराग विज्ञानता । शिवस्वरूप शिवकार, नमहुँ त्रियोग सम्हारिकै ।।१।।
पहली ढाल
चौपाई छन्द जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दुखतें भयवन्त | तातै दुखहारी सुखकार, कहैं सीख गुरु करुणाधार ।।२।। ताहि सुनो भवि मन थिर आन, जो चाहो अपनो कल्याण । मोह महामद पियो अनादि, भूल आपको भरमत वादि ।।३।। तास भ्रमण की है बहु कथा, पै कछु कहूँ कही मुनि यथा । काल अनन्त निगोद मँझार, बीत्यो एकेन्द्री तन धार ।।४।। एक श्वास में अठदश बार, जन्म्यो मन्यो भयो दुखभार । निकसि भूमि जल पावक भयो, पवन प्रत्येक वनस्पति थयो।।५।। दुर्लभ लहि ज्यों चिन्तामणि, त्यों पर्याय लही त्रस तणी । लट पिपील अलि आदि शरीर, धर-घर मर्यो सही बहुपीर ।।६।। कबहूँ पंचेन्द्रिय पशु भयो, मन बिन निपट अज्ञानी थयो । सिंहादिक सैनी है क्रूर, निबल पशु हति खाये भूर ।।७।। कबहूँ आप भयो बलहीन, सबलनि करि खायो अतिदीन । छेदन भेदन भूख पियास, भार वहन हिम आतप त्रास ।।८।। वध बन्धन आदिक दुख घने, कोटि जीभते जात न भनें । अतिसंक्लेश भाव हैं मन्यो, घोर श्वभ्र सागर में पर्यो ।।९।। तहाँ भूमि परसत दुख इसो, बिच्छू सहस इसे नहिं तिसो । तहाँ राध-शोणितवाहिनी, कृमिकुलकलित देहदाहिनी ।।१०।।