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छहढाला सकल द्रव्य को पास जास में, सो आकाश पिछानो । नियत वर्तना निशिदिन सो, व्यवहार काल परिमानो ।। यो अजीव अब आस्रव सुनिये, मन-बच-काय त्रियोगा। मिथ्या अविरति अरु कषाय, परमाद-सहित उपयोगा ।।८।। ये ही आतम के दुखकारण, तातैं इनको तजिये । जीव प्रदेश बँधे विधिसों सो, बंधन कबहुँ न सजिये ।। शम-दमतें जो कर्म न आवें, सो संवर आदरिये । तप बलतें विधि- झरन निरजरा, ताहि सदा आचरिये ।।९।। सकलकर्म तें रहित अवस्था, सो शिव थिर सुखकारी । इहि विधि जो सरधा तत्त्वन की, सो समकित व्यवहारी ।। देव जिनेन्द्र गुरु परिग्रह बिन, धर्म दयाजुत सारो । येही मान समकित को कारण, अष्ट-अंग-जुत धारी ।।१०।। वसु मद टारि निवारि त्रिशठता, षट् अनायतन त्यागो । शंकादिक वसु दोष बिना, संवेगादिक चित पागो ।। अष्ट अंग अरु दोष पच्चीसों, तिन संक्षेपहु कहिये । बिन जाने ते दोष गुणन को, कैसे तजिये गहिये ।।११।। जिन वच में शंका न धार वृष, भवसुख वांछा भान । मुनि-तन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछाने ।। निजगुण अरु पर औगुण ढाँक, वा निजधर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषते चिगते, निजपर को सु दिढ़ावै ।।१२।। धर्मीसों गौ बच्छ प्रीति सम, कर जिनधर्म दिपावै । इन गुणतें विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै ।। पिता भूप वा मातुल नृप जो, होय न तो मद ठाने । मद न रूपको मद न ज्ञानको, धन बल को मद भानै ।।१३।। तप को मद न मद जु प्रभुता को, करै न सो निज जानै । मद धारै तो यही दोष वसु, समकित को मल ठाने ।।
कुगुरु-कुदेव-कुवृष सेवक की, नहिं प्रशंस उचरै है। | जिनमुनि जिनश्रुत बिन कुगुरादिक, तिन्हें न नमन करै है ।।१४।।