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छहढ़ाला दोष रहित गुण सहित सुधी जे, सम्यक् दरश सजे हैं । चरितमोहवश लेश ने संजम, पै सुरनाथ जजे हैं ।। गेही पै गृह में न रचै ज्यों, जलतें भिन्न कमल है । नगरनारि को प्यार यथा, कादे में हेम अमल है ।।१५।। प्रथम नरक बिन षड् भू ज्योतिष, वान भवन पंढ नारी । थावर विकलत्रय पशु में नहि, उपजत सम्यक्धारी ।। तीन लोक तिहुँकाल माँहि नहिं, दर्शन सो सुखकारी । सकल धरम को मूल यही, इस बिन करनी दुखकारी ।।१६।। मोक्षमहल की परथम सीढ़ी, या बिन ज्ञान चरित्रा । सम्यक्ता २ लहै सो दर्शन, धारो भव्य पवित्रा ।। 'दौल' समझ सुन चेत सयाने, काल वृथा मत खोवै । यह नरभव फिर मिलन कठिन है, जो सम्यक् नहिं होवै ।।१७।।
चौथी ढाल सम्यकद्धा धारि सुनि, सेबा सभ्यताम । स्वपर अर्थ बहु धर्म जुत, जो प्रगटावन भान ।। सम्यक् साथै ज्ञान होय, पै भिन्न अराधो । लक्षण श्रद्धा जान, दुहूँ में भेद अबाधो ।। सम्यक् कारण जान, ज्ञान कारज है सोई । युगपत होते हूँ प्रकाश, दीपकतें होई ॥१॥ तास भेद दो हैं परोक्ष, परतछि तिन माहीं । मति श्रुत दोय परोक्ष, अक्ष मनते उपजाहीं ।। अवधिज्ञान मनपर्जय, दो हैं देश-प्रतच्छा । द्रव्य क्षेत्र परिमाण लिये, जानें जिय स्वच्छा ।।२।। सकल द्रव्य के गुण अनन्त, परजाय अनन्ता । जानै एकै काल, प्रगट केवलि भगवन्ता ।। ज्ञान समान न आन, जगत में सुख को कारन । इहि परमामृत जन्म-जरा-मृत-रोग-निवारन ।।३।।