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छहलाला
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आठ अंग जिन वच में शंका न धार वृष, भव-सुख वांछा भानै । मुनितन मलिन न देख घिनावै, तत्त्व कुतत्त्व पिछाने ।। निजगुण अरु पर औगुण ढाँकै, वा निज धर्म बढ़ावै । कामादिक कर वृषते चिगते, निज पर को सुदिढ़ावै ।।१२।। धर्मीसों गौ- बच्छ-प्रीतिसम, कर जिन-धर्म दिपावै । इन गुणतें विपरीत दोष वसु, तिनको सतत खिपावै ।।
शब्दार्थ—वच = वचन । शंका = सन्देह । वृष = धर्म । भवसुख = संसार सुख । वांछा = इच्छा । मलिन = मैला । भान = त्याग करना चाहिए । घिनावै = ग्लानि करना । तत्त्व कुतत्त्व = साँचे-झूठे तत्त्व । पिछाने = पहचान करना । पर औगुण = दूसरे के दोष = ढाकै = छिपाना । वृषः = धर्म से । चिगते = डिगते हुए । दिढ़ावै = स्थिर करना । धर्मीसों = धर्मात्माओं से । गौ-बच्छ प्रीतिसम = गाय-बछड़े की प्रीति के समान । दिपावै = प्रकाशित करना । खिपा = नष्ट करना ।
अर्थ (१) जिनेन्द्र भगवान के द्वारा कहे हुए वचनों में संदेह नहीं करना निशंकित अंग है ।
(२) धर्म को धारण करके संसार के सुखों की वांछा ( इच्छा ) नहीं करना निकांक्षित अंग है ।
(३) मुनियों के मैले शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना निर्विचिकित्सा अंग है।
(४) साँच्चे और झूठे तत्त्वों की पहचान कर मूढ़ताओं में नहीं फँसना अमूढ़दृष्टि अंग है।
(५) अपने गुणों को और पर के अवगुणों को प्रकट नहीं करना व अपने धर्म को बढ़ाना उपगूहन अंग है ।
(६) काम-विकार आदि के कारण धर्म से भ्रष्ट होते हुए को फिर से उसी में स्थिर कर देना स्थितिकरण अंग है।
(७) अपने सहधर्मियों से बछड़े पर गाय के प्रेम के समान निष्कपट प्रेम करना वात्सल्य अंग है ।