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छहढ़ाला
छीलने पर कुछ हाथ नहीं आता है । उसी प्रकार जिसमें घूमते हुए कहीं भी सार नहीं प्राप्त होता वह संसार है ।
(४) एकत्व भावना शुभ अशुभ करम फल जेते, भोगै जिय एकहि तेते । सुत दारा होय न सीरी, सब स्वारथ के हैं भोरी ।।६।।
शब्दार्थ-शुभ = पुण्य । अशुभ = पाप | जेते = जितने । एकहि = अकेला । तेते = उन सबको । सुत = पुत्र । दारा = स्त्री । सीरी = साथी । स्वारथ - मनन ! पीटी = गाजी । __अर्थ—पुण्य और पाप कर्मों के फल जितने भी हैं उनको वह जीव अकेला ही भोगता है । पुत्र, स्त्री कोई साथी नहीं होते । सब मतलब के गर्जी हैं-ऐसा विचार करना एकत्व भावना है ।
प्रश्न १–शुभ कर्मफल किसे कहते हैं ? ।
उत्तर--सच्चे देव द्वारा कहे गये धार्मिक कार्यों का फल शुभ फल कहलाता है । जैसे—उत्तम कुल, सुखी, धनी, सम्पन्न परिवार, निरोग शरीर आदि ।
प्रश्न २–अशुभ कर्मफल किसे कहते हैं ?
उत्तर-हिंसादि लोकनिंद्य कार्यों का फल अशुभ फल कहलाता है । जैसे नीच कुल, खोटी सन्तान, दरिद्रता आदि अशुभ कर्मों का फल है ।
(५) अन्यत्व भावना जल-पय ज्यों जिय-तन मेला, पै भिन्न-भिन्न नहिं भेला । त्यों प्रकट जुदे धन धामा, क्यों है इक मिलि सुत रामा ।।७।।
शब्दार्थ--पय = दुध । मेला = सम्बन्ध । भेला = इकट्ठा । प्रगट = प्रत्यक्ष । जुदे = अलग । धामा = मकान । रामा = स्त्री । इक = एक । क्यों हैं = कैसे हो सकते हैं।
अर्थ--दूध और पानी के मेल के समान ही शरीर और आत्मा का