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वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा जमाया हुआ वासी दूध ही सेवन करते हैं । हमें अँगरेजोंसे स्वदेशप्रेम सीखने का यह अच्छा प्रमाण है।
सरकारको देशकी दुर्भिक्ष-प्रसित भयंकर दुर्दशा पर ध्यान देना चाहिए और उसे शीघ्र ही इसके सधार में प्रवत्त होकर सच्चे राजा होने का परिचय देना चाहिए । उसे अब भारतकी भलाई में बहुत सा द्रव्य खर्च करनेकी जरूरत है । जरा अपने स्वार्थ सिद्ध करनेके व्ययको कम कर देना चाहिए । जैसे रेल, एक सरकारी बड़ा भारी व्यापार है। इसमें असंख्य रुपये लग चुके हैं । इससे देशको दिखने में तो लाभ है, परन्तु वास्तव में हानि है। सरकारको इससे अत्यंत लाभ है । जरा संक्षिप्तमें इसका हाल भी सुन लीजिए-" सन् १५५३ ई० में यहाँ रेलें जारी हुई। अब ३५ हजार २८५ मील रेलका विस्तार है। इसमें ४६ अरब ५८ करोड ५९ लाख ३५००० रु. व्यय हुए और भारतसरकार प्रति वर्ष १२ करोड़ रुपया इसके विस्तार के लिये खर्च करती है। यह सिर्फ रेलपथका खर्चा है; रेलवे विभागका नहीं। यदि यही रुपया या इतना ही रुपया देशको उन्नतिमें प्रति वर्ष सरकार खर्च करे तो देशका परम कल्याण हो सकता है । रेलपथ नहीं सही, पहले इन रेलों में बैठ कर चलनेवाली दुर्भिक्ष पीड़ित भूखी भारत संतानकी जठर-ज्वालाको शान्त करे । अपनी प्रजाको पुत्रवत् पालन करना राजाका पहला धर्म है। यह सब बातें सोच कर यदि राजा भारतवासियोंकी सुध ले तो यह सब झगड़ा तमाम हो, किंतु नहीं कोई नहीं सुनता ! इस क्षुधात भारतका रक्षक वह एक परमात्मा ही है
देशकी अत्यंत दुर्दशा है । दुर्भिक्ष इसके सामने मुहँ फाड़े खड़ा है। आप यदि स्वावलंबी होकर देशका उद्धार कर सकते हैं तो कर लीजिए, अन्यथा इस तरह तो असंभव मालूम होता है ।
प्रियपाठक, भारतमें दुर्भिक्षके कुछ मोटे मोटे कारणों को मैंने इस पुस्तकमें लिखनेका साहस किया है । यह मेरा साहस सचमुच दुस्साहस कहा जा सकता है। क्योंकि १९०० मील लम्बे और लगभग इतने ही चौड़े स्थान (भारत) मेंके दुर्भिक्षका कारण बता देना मुझ जैसे अल्लज्ञ पुरुषोंका कार्य नहीं है । तथापि अपने भावोंको दबोचे रखना भी मैंने उचित नहीं समझा और
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