Book Title: Bharat Bhaishajya Ratnakar Part 03
Author(s): Nagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
Publisher: Unza Aayurvedik Pharmacy
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
चूर्णपकरणम् ]
तृतीयो भागः।
[३३]
-
(२९७८) देवदालीप्रयोगः (५) पिस्तल्लिनदेहस्तु दद्वपामाविचर्चिकाम् ।।
(र. चिं. । स्तब. ३) | श्वित्राणि नाशयेत्सद्यः सिध्मकुष्ठानि यानि च ॥ पाकुचीत्रिफलाचूर्ण पञ्चाङ्गं निम्बज नयेत् । । पत्र, फल और मूल युक्त देवदालीको सुखाचित्रकरम तथा मूलं देवदाली समां क्षिपेत् ॥ कर चूर्ण करें और फिर उसे आक तथा सेहुण्ड अर्कसेहुण्डदुग्धेन भाम्यते दिनमात्रकम् । (सेंड ) के दूधकी सात सात भावना दें। मापकद्वित्तयं दद्यात्रिफलाकाथसंयुतम् ॥ इसमें से २ माशे चूर्ण प्रतिदिन खांडके निहन्ति सर्वकुष्ठानि मासेनैकेन निश्चितम् । | साथ खानेसे ३ मास में गलत्प्रायः कुष्ठ भी अवमपि वर्षसहस्रस्य दृढीभूतं विनाशयेत् ॥ श्य नष्ट हो जाते हैं।
बाबची, त्रिफला (हर्र, बहेड़ा, आमला), देवदाली के फलोंके रस में तिलका तैल नीमका पञ्चाङ्ग, और चीतामूल, एक एक भाग तथा मिलाकर प्रातःकाल शरीर पर मालिश करें और देवदाली सबके बराबर लेकर चूर्ण बनाकर उसे १ ३ पहर बाद पांछ डालें तथा इसी योग को पिया दिन सेहुण्ड (सेंड) और आकके दूधमें घोटें। भी करें । इससे दाद, खुजली, विचर्चिका, सफेद ___ इसे २ माशेकी मात्रानुसार त्रिफलाके काथके | कोढ़ और सिध्म ( छीप ) का नाश होता है साथ सेवन करानेसे बहुत पुराना कुष्ठ भी १ मासमें
(नोट-यह योग तीव्र रेचक है । सावधानी नष्ट हो जाता है।
पूर्वक सेवन कराना चाहिये। नोट---यह तीब्र रेचक है अत एव साव
(२९८०) द्राक्षादिचूर्णम् (१) धानी पूर्वक सेवन कराना चाहिए । मात्रा आदि
(. मा. । हिक्का; वं. से. । श्वास.) रोगीके बलाबलका विचार करके निश्चित करनी
द्राक्षाहरीतकीकृष्णाकर्कटाख्यादुरालभाः । चाहिए। (२९७९) देवदालीप्रयोगः (६)
विलिइन्मधुसर्पियो श्वासान्हन्ति सुदारुणान् ।।
___दाख (मुनक्का ), हर्र, पीपल, काकडासिंगी, (र. चिं. । स्त. ३) सपत्रां सफलां नीत्वा समूलां देवदालिकाम्।
और धमासा । समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । सेहुण्डापपोभिस्तां भावयेत्सप्तधा बुधः ॥
इसे शहद और घीके साथ चाटनेसे भयङ्कर श्वास माषद्वयमितं चूर्णे प्रत्यहं सह शर्करम् ।
भी नष्ट हो जाता है। त्रिमासादूर्ध्वतः कुष्ठमपहन्ति न संशयः॥ (२९८१) द्राक्षादिचूर्णम् (२) गलत्यायाणि यानि स्युः कुष्ठानि सानि
(वं. से., यो. र. । मुख.) - नाशयेत । मृद्वीकाकटुकाव्योपदावर्तीत्वत्रिफलाघनम् । एकवेल मलिमयं त्रियामान्ते परित्यजेत ॥ पाठा रसाञ्जनं दूर्वा तेजोद्देति सुचूर्णितम् ।। तिलतलैन संयुक्तं देवदालीफल द्रवम् । क्षौद्रयुक्तं विधातव्यं गलरोगे महौषधम् ॥
१ मूर्वेति पाठान्तरम् ।
For Private And Personal Use Only