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भक्तामर स्तोत्र का परिचय ३ देह-पर्याय से ही सर्वथा रहित हे उनका तो जन्म क्या और मृत्यु क्या? ऐसे परमात्म भाव के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच कर जो कृतकृत्य हो गये, उनके साथ जुडकर वैसा हो जाना कितना दुरूह है। "भक्तामर स्तोत्र" ऐसी परम सहजावस्था तक पहुंचाने का सम्पूर्ण दायित्व अपने ऊपर लेकर सफल रहा है।
भक्त अर्थात् जीव-आत्मा नवतत्त्वो मे प्रथम तत्त्व। "अमर" याने मोक्ष नवतत्त्वो मे अन्तिम तत्त्व। प्रथम तत्त्व की समापत्ति अन्तिम तत्त्व मे है। आत्मा सहज मुक्तावस्था मे परमात्मा हो जाता है या परमात्मा कहलाता है।
अत भक्तामर याने आत्मा-परमात्मा का मिलन, आत्मा-परमात्मा का दर्शन, आत्मा-परमात्मा का चिन्तन और अन्त मे परमात्मदशा प्राप्त करने की सर्वश्रेष्ठ सफल साधना है। योगीराज आनदघन प्रभु ने "अमर" शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है
अव हम अमर भये न मरेंगे। जा कारण मिथ्यात दियो तज, क्यूँ कर देह धरेगे अव हम मर्यो अनत वार विन समज्यो, अद सुख-दुख विसरेंगे। "आनन्दघन" प्रभु निपट अक्षर दो, नही समरे सो मरेंगे।
अब हम इन पक्तियो मे "अमर" शब्द की व्याख्या ओर अमर बनने के उपाय बताये हैं।
यह स्तोत्र “भक्तामर स्तोत्र" के नाम से पहचाना जाता है। इसका सफल कारण यही है कि इसमे परमात्मा के अनुपम गुणो का और वीतरागभाव का अपूर्व वर्णन प्रस्तुत है। इन गुणो को और वीतरागभाव को जो भी भक्त उत्कृष्ट भाव से अपने मे प्रकट करता है वह निश्चित रूप से अजर और अमर बनता है। कर्ममुक्त होता है। भक्त को अमर बनाने का अपार सामर्थ्य इस स्तोत्र मे होने से इसे "भक्तामर स्तोत्र" नाम से अभिप्रेत किया गया
इस स्तोत्र के रचयिता मानतुगाचार्य हैं, यह स्तोत्र के अंतिम श्लोक से सिद्ध है। परन्तु, इसके रचना-कालादि के बारे मे मिलने वाले अभिप्राय अनुमानजन्य अधिक होने से अस्पष्ट रहे हैं। इतिहास के अनुसार आचार्य मानतुग अनेक हुए हैं। अत इस स्तोत्र के रचयिता मानतुग के दारे मे निर्णय लेना दुरूह है। फिर भी अधिक जानकारियो के आधार पर घटनाभूमि धारा-अवन्तिका नगरी है। ११वी सदी के अतकाल मे भारत पर विदेशी आक्रमण आ जाने से हमारी कई महत्वपूर्ण कृतिया नष्ट-भ्रष्ट हो गई। अत आचार्य मानतुग के जन्म, दीक्षा, जीवन या देहविलय के बारे में आधारभूत विश्वसनीय जानकारी अप्राप्य रही है।