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भक्तामर स्तोत्र का परिचय ७ मनन और ध्यान करने वालो को यह स्तोत्र अष्ट ऋद्धि, नव निधि, अनेक सिद्धि और अन्त मे अनत अव्यावाध आत्मिक सुख को देने वाला है। इसका गूढार्थ इतना उच्च शिखर पर पहुंचा हुआ है कि यह अज्ञानी की समझ मे ही नहीं आ सकता है। इस काव्य में अनेक मत्र हैं। इसका प्रत्येक चरण, पद और अक्षर चमत्कारी है। __ वसततिलका छद का इसमे प्रयोग है। छद याने आल्हाद, आनदजनक लय। इसके प्रत्येक श्लोक मे चार पंक्तियाँ हैं। प्रत्येक पंक्ति में पहला, दूसरा, चौथा, आठवा, ग्यारहवा, तेरहवा और चौदहवा ये सात अक्षर गुरु हैं। तीसरा, पाँचवॉ, छठा, सातवा, नववा, दशवा और वारहवा ये सात अक्षर लघु हैं। इस प्रकार प्रत्येक पंक्ति में कुल १४ अक्षर हैं जो चौदह गुणस्थानक या चौदह पूर्व के स्मृति-प्रतीक हैं। इस व्यवस्था में लघु अक्षर के बाद सयुक्ताक्षर, हो या उसके साथ अनुस्वार या विसर्ग जुड़े हो अथवा वहाँ पंक्ति की पूर्णता होती हो वहाँ वह लघु अक्षर भी गुरु माना जाता है।
स्तोत्र वह हे जिसमे स्तव और स्तुति दोनों हो। एक तो परमात्मा के गुणो का स्तवन करना और उनका स्तवन करते हुए स्वयं के अवगुणों को परमात्मा के सामने प्रकट कर परमात्मा के गुणों को आत्मसात् करना स्तुति है। "उत्तराध्ययन" के २९वें अध्याय में कहा है -
"थवधुइमगलेण भन्ते । जीवे कि जणयइ? थवथुइमंगलेणं नाण-दंसण-चरित्तदोहिलाभ जणयइ।
नाण-दसण-चरित्त-वोहिलाभ सपन्ने य णं जीवे अन्तकिरिय कप्पविमाणोववत्तिर्ग आराहणं आराहेइ।
स्तवन और स्तुतिरूप मगल से ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप बोधिलाभ की प्राप्ति होती है। ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप बोधिलाभ से सपन्न जीव ससार का अत कर निर्वाण प्राप्त करता है, या कल्प विमान मे आराधना करने वाला होता है।
इस स्तोत्र मे श्लोक १ और २ लक्ष्य को निश्चय से प्राप्त करने का ध्येय प्रकट कर जीवन की महान् साधना का रहस्य प्रस्तुत करते हैं।
तीसरे श्लोक मे परमात्मा के सन्मुख होने पर साधक के लिए अनिवार्य स्व-पहचान का ध्येय प्रस्तुत है।
४ से ७ तक के श्लोको मे साधक को परमात्मा से अपना सम्बन्ध स्थापित करने की सफल कला दर्शायी है।
श्लोक ८ मे सबंध स्थापित होने के बाद की साधक की स्थिति का वर्णन है।
श्लोक ९ को जिनेश्वर की आराधना से समस्त दुरितों को दूर करने के सामर्थ्यवाला दताया है।