Book Title: Bhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 44
________________ आत्मा का परिचय २१ माता-पिता का इकलौता पुत्र कभी विरासत में मिली पूरी निधि को लेकर माता-पिता से अलग रहने लगे और फिर कभी कमभाग्य से यह सब कुछ खो बैठे तव माता-पिता के सामो आवे तो पिता उसे देखकर क्या कहेंगे-"नालायक! सब कुछ लेकर चला गया और आज गरज होने पर यहाँ पुन आ रहा है, तुझे शर्म नहीं आती है?" इम समय माता ने पुत्र की दशा देखी और कहा-"वेटा। आओ। मैं तुम्हें माफ करती हूँ। तुझमें बुद्धि नहीं, शर्म नहीं, फिर भी वेटा हमारे प्रति रही तुम्हारी श्रद्धा ही मेरे लिए काफी है। प्रभु तू मा है। सत्पय जननी है। विश्वमैया है। तेरी स्तुति जैसे महान् भगीरय कार्य में ऐसी वालिशता कैसे काम आएगी? मैं जानता हूँ फिर भी मुझे इसमें तेरे प्रति स्तुति के लिए उघत मेरी मति ही आकर्षित करती है, इसीलिए कहता हूँ कि सारे पूर्वाग्रह, पूर्वस्मरण और पूर्व-कथित प्रेमभावों से मुक्त होकर "स्तोतु समुद्यतमति " वाला हूँ। ऐसा होता हूँ तव जगज्जीवन । हृदयेश्वर। तेरा विराट परम स्वरूप का एक छोटा सा प्रतिविम्द मेरे भक्तिजल से भरे हृदय में सम्यक् प्रकार से स्थित हो रहा है। मेरे एक मात्र शक्ति केन्द्र आप हो प्रभु जैसे बच्चा माँ की गोद में बैठकर सहसा उसके अद्भुत वात्सल्य को प्राप्त करने का प्रयास करता है वैसे ही प्रभु। मैं भी निर्दोष भाव (वालमाव) से तेरे निर्दोष वीतराग स्वरूप के दर्शन-स्पर्शन और प्राप्ति का साहस करता हूँ। "वाले" शब्द से मैं अपने मे रही सहज सुलभ निर्दोष वृत्ति का आविर्भाव करता हूँ। जल में पड़ा चन्द्र विम्ब तो सदा चचल रहता है परन्तु प्रभु। आप तो सस्थित हैं। आपके प्रतिबिम्द से उत्पन्न विधुत चुवकीय Vibrauon शक्तिभावो से मुझ में प्रवल तरंगे प्रवाहित हो रही हैं, उत्पन हो रही हैं Influx हो रही है। इससे मेरी सारी मूलवृत्तिया Instunts यथार्थभाव में परिणत हो रही हैं। यह परिवर्तन मुझे अपने सहज स्वभाव की और प्रेरित कर रहा है। आपके प्रतिविम्बित होने से मुझने एक ऐसा स्पदन उठ रहा है जिसने सारे मानसिक आवेग--तगाव (Tension) समाप्त हो रहे हैं। इससे सर्जित-पर्यावरण मेरे दशों प्राणशक्तियों से अवरुद्ध शक्तिप्रवाह को आदोलित कर रहा है। झा आदोलनों के अभियोग से अवतरित आपकी स्तुति से दने हुए विशुद्ध वायुमडल में जन्मो के बंधे कर्मों की निर्जरा हो रही है। इस आन्य आलनिर्मलता रूप अभिव्यक्ति के माध्यम से प्रभु। दालसहज शिदीपभापों के दिता कान आप इस महान प्रतिदिम्ब को अपने हृदय न स्यामित कर साहायो कि आप समस्त दोषों से रहित हो। स लोक की दूसरी पक्ति ने कुल ५ तकारों का प्रयोग हुआ है जो क्रम से , 1५1, तरा , ३ सन्मयता. सल्लीनता और ५ तत्समता -एक विशेष साधना

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