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असि
८६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि असि
- हो
- न अम्भोधरोदर
- बादलो के उदर मे जिसका महाप्रभाव निरुद्धमहाप्रभाव
अवरुद्ध हो सका है (अत) लोके
- इस लोक मे सूर्यातिशायि महिमा - सूर्य से भी अधिक महिमा को आप धारण
करने वाले
- हो। यहा पर सूर्य के साथ परमात्मा की तुलना करने का प्रयास किया गया है। यद्यपि तुलना उनकी होती है जो समान हो। भक्तामर स्तोत्र की अद्भुत शैली यही है कि इसमे पहले तुलना करने का प्रयत्न कर फिर अतुलनीय बताकर पुन उन्ही उपमा को प्रतीक बनाकर परमात्मा को विश्लेषित किया गया है।
इसे हम तीन तरह से देखेगे१ सामान्य याने जागतिक सूर्य। २.परमात्मारूप सूर्य। ३ आत्म सूर्य।
१ सामान्य सूर्य-सूर्य जो प्रतिदिन उदित होकर सृष्टि के प्राणियो को नवचेतना, स्फूर्ति और आवश्यक ऊष्मा प्रदान करता है। मानव सृष्टि ने अपने मानस-विकास मे इसे अधिक मूल्यवान और महत्त्वपूर्ण माना है। चूंकि इसके अभाव मे मानवीय ऊर्जा की तरगो मे परिवर्तन आना असभव है।
उदित होते हुए सूर्य की कई लोग पूजा अर्चना करते हैं, नमस्कार करते हैं। इसकी विविध तरह से पर्युपासना कर जगत ने इसकी महत्ता को स्वीकार किया है। सर्व प्रवृत्तियो का प्रेरक बल यह सूर्य शुद्ध तेजोलेश्यावान् है। इसी कारण इसे रोग, अधकार और गदगी रूप अनिष्टों को दूर करने वाला माना है।
इस सृष्टि के प्राणियो को सूर्य की इतनी अधिक आवश्यकता होने पर भी इसका अभाव भी होता है। यह अभाव नित्यसृष्टि मे नियमित हो जाने से हम इसे अनुभव का विषय नही बना सके हैं, परतु जब एक भावसूर्य की हमे उपलब्धि होती है तब अभाव-सूर्य के अभाव का हमे उद्बोध होता है। इसी विशिष्ट ध्यान प्रणाली मे लीन कविश्री ने जागतिक सूर्य मे चार अभाव दर्शाये हैं