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स्वरूप १०१ भक्तामर स्तोत्र में भक्तामर शब्द कहा सिद्ध होता इसकी हम खोज कर रहे हैं। आज परम स्वरूप का वर्णन करते हुए तीन श्लोकों के माध्यम से आचार्यश्री हमें सम्पूर्ण भक्तामरस्तोत्र की सार्थकता प्रदान कर रहे हैं।
त्वा आमनन्ति मुनय -मुनि तुम्हें इस प्रकार मानते हैं। यहा से श्लोक का प्रारम्भ हो रहा है। आप जानते हो आठवे श्लोक में हमने मत्वा शब्द का प्रयोग किया था। हमारे सामने दो चीजें हैं--ज्ञात्वा और मत्वा । जानना और मानना। ये दोनों चीजे महत्त्व की हैं। यदि ज्ञात्वा को आप अपने जीवन मे महत्त्व देंगे और मत्वा को नहीं देगे तो भी आपकी साधना अधूरी है और यदि मत्वा को आप अपने जीवन मे महत्त्व देगे और ज्ञात्वा को नहीं देंगे तो भी आपकी साधना अधूरी है। जैन दर्शन ने ज्ञात्वा और मत्वा दोनों को महत्व दिया है। लेकिन जब हम निश्चयनय के आधार पर परम स्वरूप के वर्णन के लिये आगे बढ़ते हैं तो हम सिर्फ ज्ञात्वा की याने जानने की प्रणाली पर हम आगे बढ़ते हैं और यदि किसी भी वस्तु/पदार्थ को सिर्फ जानने के रूप में ही आगे बढ़ेगे, लेकिन मानेगे नहीं तो हमारा जानना अधूरा रहेगा। आमनन्ति का मतलब होता है आपको मानते हैं। श्लोको के माध्यम से हमने परमात्मा के स्वरूप को जानने का प्रयास किया था लेकिन यहाँ आचार्यश्री सोचते हैं जानना तो ज्ञान का स्वभाव है और मानना दर्शन का स्वभाव है। ज्ञान के द्वारा जिस वस्तु को जाना जाता है दर्शन के द्वारा उसी वस्तु को स्वीकार किया जाता है। जानने में हम कहते हैं- परमात्मा । तू ज्ञानी है मै जानता हूँ, परमात्मा। मै अज्ञान से युक्त हूँ यह मै जानता हूँ। परमात्मा । तू महान है मै लघु हूँ। परमात्मा तू कर्म से रहित है, मैं कर्म से युक्त हूँ, यह मै जानता हूँ। इससे क्या होगा, जान लिया हमने। सोचो तो सही, हमने जान लिया कि मुनि मानतुगजी जैसे कोई आचार्य थे, जिन्होंने परमात्मा का स्मरण किया था, उनकी देड़ियो के बन्धन टूट चुके थे। पर भाई । हमारे तो सूत के धागे भी नही टूटते हैं। हम क्यों गाते हैं भक्तामर स्तोत्र ?
परमात्मा कितने ही महान हैं, परमात्मा को मानने वाले मुनि कितने ही महान हैं लेकिन मुझे उससे क्या? यह मैंने जान लिया। इस श्लोक की विशिष्टता यही है कि यह हमें जानने से मानने तक आगे बढ़ाता है। आचार्यश्री के साथ अभेद करने पर ही हम इन पद्यों को समझ सकेगे और स्वीकार कर हमारे भीतर रहा परमात्मस्वरूप प्रकट कर पायेंगे। ___कहते हैं, मुनि आपको मानते हैं। प्रश्न है, मुनि याने कौन ? कविश्री को हम यहा मुनि मानकर चलते हैं। अब वे कौन से मुनि की यहा बात करते हैं, जिसने परमात्मा को जैसे. माना है वैसे मुझे मानना है ? त्वा शब्द के द्वारा-आमनन्ति शब्द के साथ हमारा सम्बन्ध स्थापित हो गया। आचार्यश्री के साथ अभेद करने पर हमारे साथ त्वा आयेगा। दूसरे श्लोक की तीसरी पंक्ति में "तं जिनेन्द्रम्" शब्द का प्रयोग हुआ है। त याने उन। उनका मतलब क्या ? कहने वाले के सामने जो नहीं है उन तृतीय पुरुष की दात करता है। त्या कहते ही दे सामने हैं। तीसरे श्लोक के दाद ही यह परिवर्तन शुरू हो गया है और तब से वे Dirculv परमात्मा से ही दात करते आ रहे हैं।