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१४८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि ___ ताडपत्रो पर टूटे-फूटे अक्षरो मे लिखे स्तोत्र को लेकर पढ़ते हुए राजा की आँखे खुली हैं, मन मे कौतूहल है। पर कोई बेडी नही टूटी। बडा रज हुआ। सारी बेडिया खोलकर उठ खड़ा हुआ। राजसैनिक को भेजकर मनीषी वर्ग को बुलाया। उनसे कहा-तुम्हारे मुनि की यह monopoly नही चलेगी। यही श्लोक उन्होने गाया। तो कीलबन्ध बेडियॉ टूटती गयी और मेरे तो बिना कील की बेड़ियाँ भी नही टूटी।
प्रत्युत्पन्नमति विपश्चितो ने कहा-महाराज | मुनिश्री की बेडी के बधन टूटने मे स्तोत्र के साथ उनकी भक्ति और भक्ति के आराध्य परमात्मा का प्रभाव था। राजन्। आराधना तीन तरह की होती है
१ प्रतिस्पर्धाजन्य २ पुनरावृत्तिजन्य और ३ भक्तिजन्य। राजन्। आपमे पुनरावृत्ति है, भक्ति नही। पुनरावृत्ति से कभी साधना नही फलती है।
इस वार्तालाप से राजा को अपनी गलती महसूस हुई और वे समर्पण के लिये तैयार हुए। श्रद्धा और भक्ति से नम्र बने राजा के साथ विद्वद्वर्ग उपाश्रय पहुंचता है, परन्तु सयोग से उपसर्गजन्य स्थान से आहार नही लेने की धारणा से आचार्यश्री वहाँ से विहार कर पधार गये थे। आगन्तुक बहुत खिन्न होते हैं। यह कैसा मेरा और नगरवासियो का हीनभाग्य। मुनिश्री को कितनी उमग से लाया था। यहाँ आकर भी एक पानी की बूंद या आहार कण लिये बिना ही वे पधार गये। वे निराश होकर, हताश होकर वही पर बैठ अश्रु बहाते हैं। अन्त मे राजा के आग्रह से दोनो रथारूढ होकर जिस दिशा मे आचार्यश्री विहार कर पधारे थे उस दिशा मे प्रस्थान करते हैं। कुछ दूरी पर पहुंच रहे आचार्यश्री की सेवा मे राजा नतमस्तक होकर अपने अपराध की क्षमा मागता है। पश्चात्ताप से अश्रुसिक्त होकर आचार्यश्री के चरणो का प्रक्षालन करता है। पूर्ण समर्पण के भावो के साथ नतमस्तक राजा के मस्तक पर आचार्यश्री ने हाथ रख कर कहा
तुम्हारा कल्याण हो। तुम्हारा साधना पथ प्रशस्त हो। तुम शीघ्र ी भक्त होकर भगवान बन जाओ।
समर्पित राजा ने आचार्यश्री से अर्थपूर्ण भक्तामर स्तोत्र को सुना और इसी प्रकार स्तोत्र का रहस्य जानने की अभ्यर्थना व्यक्त की। आचार्यश्री ने भक्तामर स्तोत्र का पूर्ण रहस्य समझा कर उन्हें प्रथम नवकार मत्र का दान कर बाद मे स्तोत्रारभ कराया।
भक्तामर-प्रणतमौलि-मणिप्रभाणा* मुद्द्योतक दलित्-पापतमो-वितानम्।