Book Title: Bhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 171
________________ परिशिष्ट १५३ जीव जिन द्रव्यो को भाषा के रूप मे ग्रहण करता है उन्हें सान्तर (वीच मे कुछ समय का व्यवधान डालकर अथवा रुक-रुककर) भी ग्रहण करता है और निरन्तर (लगातारबीच-बीच मे व्यवधान डाले बिना) भी ग्रहण करता है। अगर जीव भाषाद्रव्यो का सान्तर ग्रहण करे तो जघन्य एक समय का और उत्कृष्ट असख्यात समयो का अन्तर करके ग्रहण करता है। यदि कोई लगातार बोलता रहे तो उसकी अपेक्षा से जघन्य एक समय का अन्तर समझना चाहिए। जैसे- कोई वक्ता प्रथम समय मे भाषा के जिन पुद्गलो को ग्रहण करता है, दूसरे समय मे उनको निकालता तथा दूसरे समय मे गृहीत पुद्गलो को तीसरे समय मे निकालता है। इस प्रकार प्रथम समय मे सिर्फ ग्रहण होता है, वीच के समयो मे ग्रहण और निसर्ग- दोनो होते हैं, अन्तिम समय मे सिर्फ निसर्ग होता है। जैसे नि नि नि । नि नि नि । नि इसमे जो अन्तर है उसे ही कम्पन रूप मे हम अनुभूत करते हैं। रेडियो आदि इसी पद्धति की विज्ञान आविष्कृत एक यात्रिक योजना है। प्रश्न २-मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भक्तामर स्तोत्र हम में कैसे परिवर्तन ला सकता उत्तर-मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से भक्तामर को मैं Healing Process therapy की मान्यता देती हूँ। Healing therapy का विज्ञान एक ऐसी चिकित्सा देता है कि जहा हमारा प्राण-प्रवाह रुद्ध, अवरुद्ध हो चुका हो वहाँ के द्वारा प्राणऊर्जा आदोलित की जाती है। यह प्राणऊर्जा शब्द, रूप, रस, गध और स्पर्श, मन, वचन, काया, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य इन दस विभागों में विभक्त है। चित्त शक्ति के द्वारा ये प्राणऊर्जा इन दशो विभागों मे निरतर रचनात्मक कार्य करती रहती है। स्तोत्र में सहयोजित वर्णमाला एक स्वीकारात्मक Positive एव रचनात्मक Constructive आदोलनों को जगाने मे बहुत अधिक सफल है। इसी कारण यह मानसिक या शारीरिक किसी भी रोग या प्रतिक्रिया से मुक्ति दिलाता है। महापुरुष स्वय की प्राणशक्ति को साधना के बल पर व्यवस्थित कर लेते हैं। वही व्यवस्थित प्राणऊर्जा आन्दोलित होकर विविध शक्तियो के रूप मे परिणत होती रहती है। व्यक्ति की प्रत्येक गति इसी प्राणशक्ति आयाम के द्वारा विविध प्रयोजनो मे पर्यवसित या सीमित की जा सकती हैं। स्नायविक शक्ति प्रवाह (Nerve Current), गुरुत्वाकर्षण, चुबकशक्ति, विचारशक्ति, विविध शारीरिक क्रिया शक्ति आदि प्राणऊर्जाओ की विविध विकसित अवस्थाये हैं। ये आध्यात्मिक और आधिभौतिक दोनो रूपों में प्रयुक्त होती रहती हैं। यही कारण है कि महापुरुषों की योगविद्याएँ विज्ञान के सदर्भ में परिणति पाती रहती हैं

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