Book Title: Bhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 135
________________ निरवकाशतया अशेष गुणै वसति अत्र को विस्मय उपात्तविविधाश्रयजातगर्वै - - - स्वरूप सघनता से, ठसाठस, अवकाश रहित समग्र गुणो से आप आश्रितो - इसमे क्या आश्चर्य है अनेक स्थानो पर आश्रय प्राप्त करने से जिनको गर्व (घमंड) हो रहा है ऐसे वे दोषै कदाचित् अपि स्वप्नान्तरे अपि न ईक्षित असि ( अत्र को विस्मय ) तो इसमे क्या आश्चर्य है परमात्मा के अनन्त गुणों को इस गाथा मे 'निरवकाशतया' शब्द से व्याख्यायित किये हैं। निरतर रूप सर्वांगव्यापी गुणों को परमात्मा का आश्रय स्थान बताकर परम का परम स्वरूप बताया। दूषणों को बेचारे बताये जो स्वप्न मे भी परमात्मा के पास नही आ सकते हैं। ऊर्ध्वकरण Sublimation द्वारा आत्मिक गुणो का विकास करने के लिए परमात्मा की हम भी शरण ग्रहण करते हैं। दोषो से अवगुणों से - १११ कोई भी समय - किसी भी समय स्वप्न और प्रतिस्वप्नावस्थाओ मे भी नही देखे गये हो पूर्ण भावों के साथ किये गये नमस्कार और शरण ग्रहण से आत्मिक वैभव उजागर होता है। परमात्मा के बाह्य वैभव की हम अपने अन्तर् मे प्रतिष्ठा कर आत्म-वैभव कैसे वर्धमान करें, इसके लिये अब हम आगे के श्लोको को "वैभव” नामक प्रवचन से देखेगे ।

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