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श्लोक ४८
| १७. समर्पण T
अध्यात्म पथ पर समर्पण साधना की नीव है। समर्पण हृदय की एक विशिष्ट दशा है जो आत्मा को परमात्मा से, मुमुक्षु को तत्त्वज्ञान से, योगी को योग से, सयमी को सयम से, भक्त को भगवान से, तुच्छ को महान से अभिन्न कर देती है अत समर्पण वास्तविक साधना का एक मात्र अनन्य साधन है।
समर्पण के सम्बन्ध मे सोचने पर प्रश्न होता है कि किसके प्रति समर्पण की यह बात है? क्या ससार के प्राणियो ने कभी किसी को समर्पण नही किया है? यदि किया है तो उसने क्या पाया? और इस समर्पण के बाद भी कौनसा अभाव लगा जो आचार्यश्री भक्तामर स्तोत्र के द्वारा हम मे इसका सद्भाव जगा रहे हैं ?
इन सारे प्रश्नो का समाधान पाने के लिए प्रथम हमे यह समझ लेना अत्यावश्यक है कि समर्पण तो प्रत्येक जीव अनेक बार करते रहे हैं। परन्तु यह समर्पण योग्य तत्वो के प्रति नही रहा, अत समर्पण के पात्र, समर्पण के तत्व नित्य परिवर्तित होते रहे। ___यहाँ आचार्यश्री परम तत्त्व के साथ समर्पण की बात कर रहे हैं। परमात्मा से समर्पण करने का अर्थ होता है अपने आप को समर्पण होना। आत्मा की सबसे बड़ी गल्ती मात्र एक ही है कि उसने अपने आपका विश्वास खोकर ससार के अनेक व्यक्ति और पदार्थों को वह समर्पित होता रहा। ___ अपने आपको खोकर बहुत कुछ प्राप्त करना, इससे बड़ी भूल और कौनसी हो सकती है? अपने आप पर विश्वास नही करने से अपने कर्तव्य पर भी विश्वास नही रहता। कर्तव्य का विश्वात खोने से जो भी किया जाता है वे सारे कर्तव्य के नाम पर चलने वाले अकर्तव्य ही तो रहेगे।
इसी कारण महापुरुषो की दृष्टि मे घटनाएँ हमे बहुत कुछ सिखा देती हैं कि ससार की अनुकूलता और प्रतिकूलता पर विश्वास करना बहुत बडी भूल है। इसी भूल के कारण शुद्ध सहज चैतन्य स्वरूप आत्मा इस अनादिरूप ससार मे परिभ्रमण करता है। स्वय की नित्य स्वतत्र सत्ता का भान होने पर भ्रम रहता है। भ्रम के टूटने पर व्यक्ति स्वय से जुड़ जाता है। क्योंकि किसी का टूटना किसी से जुड़ जाना होता है, किसी का न होना किसी का होना हो जाता है।
परम सत्ता के प्रति समर्पित होता है तो वह समर्पण ऐसे ही नही होता है। इसमे इष्ट के साथ तादात्य स्थापित करना होता है। सृष्टि मे, घटनाओ मे जैसा होता है, उसे सहर्ष स्वीकार कर प्रसन्न रहने का अभ्यास करना ही परम सत्ता के प्रति समर्पित होना है।