Book Title: Bhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 159
________________ इस १४० भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि प्रस्तुत पद्य नामकर्म की प्रधानता के साथ सर्वकर्म से जुडा हो, ऐसा लगता है। नामकर्म विशाल है इसकी प्रकृतियाँ अनेक हैं। यही हमारी देहजन्य निर्माणशैली का कारण है। इसे Creative कर्म माना जाता है। आपका स्मरण करने वाला इस कर्म से सर्वथा रहित हो जाता है। अब उपरोक्त सर्व कर्मों का सयोजन स्थापित करने वाला पद्य है मत्तद्विपेन्द्र-मृगराज-दवानलाहिसग्राम-वारिधि-महोदर-बन्धनोत्थम्। तस्याशु नाशमुपयाति भय भियेव, यस्तावक स्तवमिम मतिमानधीते॥४७॥ - जो मतिमान् - बुद्धिमान (प्रज्ञावान पुरुष) तावकम् आपके, इमम् स्तवम् स्तोत्र को, अधीते पढ़ता है, तस्य उसका मत्तद्विपेन्द्रमृगराजदवानलाहि- - मदोन्मत्त हाथी, सिह, दावाग्नि, सर्प, सग्रामवारिधिमहोदरबन्धनोत्थम् सग्राम, सागर, जलोदर तथा बन्धन से उत्पन्न हुआ भयं भय भिया भयभीत होकर -- मानो आशु - शीघ्र ही नाशम् उपयाति - विनाश को प्राप्त करता है आत्मा इस स्तोत्र के पढ़ने से और आपके प्रति श्रद्धावान होने से सर्वथा ससार-भय से और कर्म से मुक्त अवस्था को प्राप्त करता है। दार्शनिक दृष्टिकोण से यहा कुल ९ उपसर्गों का वर्णन है।जो इस प्रकार विभक्त किये जा सकते हैं१ हाथी तिर्यंच सम्बन्धी २ सिह इव

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