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वैभव ११७ मुक्ताफल-प्रकरजाल-विवृद्धशोभ,
प्रख्यापयत् त्रिजगतः परमेश्वरत्वम्॥३१॥ शशाकान्तम्
- चन्द्रमा के समान उज्ज्वल मुक्ताफलप्रकरजालविवृद्धशोभम् - मणि मुक्ताओं के समूह की झालरो से बढ़ गई
है शोभा जिसकी ऐसे तव उच्चै. स्थितम्
- आपके ऊपर स्थित स्थगितभानुकरप्रतापम् - रोक दिया है सूर्य की किरणों का आतप
जिन्होने ऐसे छत्रत्रयम्
(एक के ऊपर एक क्रमश ) तीन छत्र त्रिजगत
- तीनों लोको के परमेश्वरत्वम्
- परमेश्वरपने को प्रख्यापयत्
- प्रख्यात करते हुए, प्रकट करते हुए विभाति
- शोभायमान हो रहे हैं। हे परमात्मा। अंतरिक्ष मे रहे निरालबी तीन छत्र के दर्शन होते ही मेरा भव-ताप समाप्त हो रहा है। आपकी परम शात मुद्रा को अत'करण में धारण कर प्रभु भक्ति के आवेश में अपने मन-वचन और काया के तीन छत्र बनाकर तीनों योगों द्वारा तेरा विशुद्ध अयोग दर्शन पा रहा हूँ। ज्ञान-दर्शन-चारित्र की रत्नत्रय रूप मिली तेरे पावन सौगात स्वरूप छत्रत्रय प्रभु मेरे परम सौभाग्य का अवसर है।
छत्रत्रय मे परमात्मा की स्थापना होते ही स्वरूप ध्यान की एकाग्रता मे परमात्मा की जयघोषणा का एक दुन्दुभिनाद उठता है
गम्भीरताररवपूरित-दिग्विभागस्त्रैलोक्यलोक-शुभसङ्गम-भूतिदक्षः।
सद्धर्मराजजय-घोषण-घोषक सन्
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी॥३२॥ गम्भीरताररवपूरितदिग्विभाग - गम्भीर-धीरोदात्त-मधुर ध्वनि से गुजायमान
दिग्मण्डल जिसने ऐसा ... त्रैलोक्यलोकशुभसंगमभूतिदक्ष ~ तीनों लोकों के प्राणियों को सत्समागम
(शुभ-सम्मेलन) का वैभव प्राप्त कराने में
समर्थ, ऐसा सद्धर्मराजजयघोषणघोषक - सद्धर्मराज याने तीर्थकर देवों का जय
जयकार की उद्घोषणा करता हुआ