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भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
कुन्ताग्रभिन्न गजशोणित- वारिवाह, वेगावतार-तरणातुरयोध - भीमे । युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास्त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥ ४३ ॥
त्वत्पादपङ्कजवनाश्रयिण
कुन्ताग्रभिन्नगजशोणितवारिवाहवेगावतारतरणातुरयोधभीमे
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भवत. स्मरणात्
युद्धे
विजितदुर्जयजेयपक्षाः
जयम् लभन्ते
इस श्लोक मे वेदनीयकर्म मे असातावेदनीय को अत्यत ही स्पष्ट रूप से चरितार्थ करते हुए इस पर विजय प्राप्त करने मे परमात्मा के चरण कमलो के माध्यम से शरण ग्रहण की विशिष्टता बतायी है ।
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आपके चरण रूपी कमलवन का सहारा लेने वाले बरछी व भालो के नुकीले अग्रभाग से भेदित, क्षत-विक्षत हाथियो के रक्त रूपी जल प्रवाह मे वेग से तेजी से उतरकर आगे बढ़ने मे उतावले ऐसे योद्धाओ से भयकर
युद्ध मे
कठिनता से जीता जा सके ऐसे शत्रु
पक्ष को जीत लिया है जिन्होने ऐसे
इस श्लोक की सर्वोपरि विशिष्टता यह है कि इसमे परमात्मा के चरणो को एक-दो कमल के उपमान से नही अपितु सम्पूर्ण कमलवन की उपमा से उपमित किया है । जीवन सग्राम है, युद्धभूमि है। यहाॅ सातत्य रूप से निरन्तर युद्ध चल रहे हैं। राग और द्वेष के प्रतीक समान युद्ध से सम्बन्धित ये दोनो श्लोक राग द्वेष के महायुद्ध से बचने का परम उपाय वीतराग के चरणो में नमस्कार और शरण ग्रहण रूप बताते हैं।
आगे कहते हैं
जय को प्राप्त होते हैं । (विजय प्राप्त करते हैं।)
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अम्भोनिधौ क्षुभितभीषण-नक्र-चक्रपाठीनपीठ-भयदोल्वण- वाडवाग्नौ । रङ्गत्तरङ्ग-शिखरस्थित-यानपात्रास्त्रासं विहाय भवतः स्मरणाद् व्रजन्ति ॥ ४४ ॥
आपके
स्मरण करने से