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१२८ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
अब आगे के १0 श्लोक कर्म से सम्बन्धित है। इनमे प्रथम ९ पद्य मुख्य हैं , जिनमे कर्म के दो विभाग बहुत ही स्पष्टत व्याख्यायित किये गये हैं। कर्म दो प्रकार के है-घाति और अघाति।
आत्मगुणो का जो घात करते हैं वे घातिकर्म हैं। ये आत्मा के गुणो का आवरण करते हैं, आत्मा के बल-वीर्य को रोकते हैं, आत्मा को विह्वल करते हैं। इन सारे कारणो को लेकर इन कर्मों को घातिकर्म कहते हैं। आठ कर्मों मे ये घातिकर्म चार हैं१ ज्ञानावरणीय
२ दर्शनावरणीय ३ मोहनीय और
४ अतराय। घातिकर्म क्षय करने मे सरलता रहती है। अत इन्हो रोका जा सकता है, हटाया या क्षय किया जा सकता है।
जैसे ज्ञानावरणीय कर्म के उदय से पाठ याद नही होता है परन्तु इसे दो, चार, आठ, सोलह, बत्तीस, चौसठ या सौ बार रटने से ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम अथवा क्षय होने से याद हो जाता है। इसी प्रकार दर्शनावरणीय कर्म का भी होता है। प्रयत्न से इसे आंशिक रूप मे रोककर पूर्णत खपाया जा सकता है। ___ यद्यपि मोहनीय कर्म अत्यन्त बलवान् है परन्तु फिर भी वह जैसी तीव्रता से आता है वैसी तीव्रता से हट भी सकता है। इत इसे भोला भी माना जा सकता है। __ अतराय कर्म का क्षय या क्षयोपशम होने से उससे प्रवर्तन होता है, वीर्य प्रकट होता है। वीर्य के दो प्रकार हैं
१ अभिसंधि और २ अनभिसधि।
अभिसधि याने आत्मा की प्रेरणा से वीर्य का प्रवर्तन और अनभिसधि याने कषाय से वीर्य का प्रवर्तन। __ ज्ञान का कार्य जानना है, दर्शन का कार्य देखना है और वीर्य का कार्य प्रवर्तमान होना है। ज्ञान दर्शन मे भूल नही होती है परन्तु उदयभाव मे रहे हुए दर्शनमोह के कारण भूल होने से भ्रान्ति के कारण सब गलत प्रतीत होता है। इसी कारण वीर्य भी विपरीत रूप परिणत होता है। यदि सम्यक्रूप मे परिणमन हो तो आत्मा सिद्ध पर्याय को पाता है। जब तक योग है, आत्मा अपनी वीर्यशक्ति से निरतर परिणमन करता रहता है। इसीलिये ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अतराय ये तीन प्रकृति उपशमभाव मे नही हो सकती हैं,क्षयोपशमभाव मे ही होती हैं। यदि ये प्रकृति उपशमभाव मे होती तो आत्मा जड़वत् हा रहती।
इनमे अन्तराय को क्षायिकभाव की दृष्टि से देखने पर अनतवीर्यलब्धि उत्पन्न होता है। (इसमे अवान्तर चार लब्धिया और मानी जाती हैं परन्तु वे सब इसी वीर्यलब्धि म शामिल हैं) वीर्य के प्राप्त होने पर आत्मा उन लब्धियो का उपयोग पुद्गल द्रव्यरूप