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स्वरूप १०९
शम् का दूसरा अर्थ शमन करना है। शमन करना, समाप्त करना, बुझा देना है। कहते हैं “शमन हो गया रोशनी का याने बुझा दी गई रोशनी या रोशनियाँ बुझ गयी।" परमात्मा किसका शमन करते हैं तो कहते हैं ससार के सारे अमगल का। शकर के बारे मे कहा जाता है समुद्र का जब मघन हुआ था उसमे से जहर और अमृत दोनो निकले थे। वे जहर तो सारा स्वय पी गये और देवो को अमृत वाटा । जो भी भक्त परमात्मा का स्मरण करता है उसके अमगल का नाश हो जाता है।
२३ अब कहते हैं " शिवमार्ग विधे विधानात् धाता असि" हे परमात्मा । शिवमार्ग याने मोक्षमार्ग की विधि/विधान बताने के कारण आप विधाता भी हो ।
२४ अब कहते हैं " त्वम् एव व्यक्त पुरुषोत्तम असि । आप व्यक्त पुरुषोत्तम हो । व्यक्त का मतलब क्या? व्यक्त याने प्रकट होने वाले। हम मे आप प्रकट होते हो, बाहर नहीं, हमारे भीतर । आत्मा में ही परमात्म पद रहा हुआ है। उसे भक्तामर स्तोत्र के द्वारा हम प्रकट करते जाएगे । अत हे परमात्मा । आपका परमात्म तत्त्व प्रकट हो चुका है और आप हम में उसे प्रकट करते हैं।
हमे
इस महान स्वरूप को मात्र सुनकर ही आराधना की पूर्णाहुति नही होती है, इसकी सम्यक् उपलब्धि करनी है। इसका हमे स्वीकार करना है। स्वीकार स्वीय होता है। स्वय से सबंधित होता है। स्वीकार का सर्वश्रेष्ठ उपाय नमस्कार है । अध्यात्म की भाषा मे नमस्कार करना शक्ति को निमत्रण देना है। जो झुकता है, वह पाता है।
नमस्कार कर्तव्य नहीं, भाव है। यदि आपको कोई पूछे कि आप नमस्कार मंत्र क्यो बोलते हो? तो आप क्या उत्तर देंगे? मैं जैन हूँ, मेरा कर्तव्य है नमस्कार मंत्र बोलने का। मेरा कर्तव्य है नमस्कृत्य को ननस्कार करने का । करना चाहिये इसलिये करता हूँ। बोलना चाहिये इसलिये बोलता हूँ। इस प्रकार करना चाहिये, या करना पड़ता है इसलिये किया जानेवाला नमस्कार व्यर्थ है। पर, इसका सही उत्तर है- परनाला नमस्कृत्य है, मेरा ही स्वरूप है, परम स्वरूप है। नमस्कार करता नहीं, उनको देखकर मुझसे नमस्कार हो जाते हैं। नमस्कार मेरे समर्पण का प्रतीक है। इसीलिये मंत्र में 'नमामि अरहताण' नहीं 'नमो अरहताण' है। भावों के साथ व गीली पलकों के साथ नमा हुआ मस्तक नमन है। ऐसे ही नमस्कार से बेडिया टूटती हैं, ऐसे ही ननम्कार से पाप छूटते हैं और ऐसे ही नमस्कार से स्वत्त्व प्रकट होता है। नमस्कार समर्पण का अन्तिम अध्याय है। ऐसे ही भादों के साथ आज हम आचार्यश्री के साथ सपने परन आराध्य को नमस्कार करेंगे।
तुभ्यं नमस्त्रिभुवनार्तिहराय नाथ ! तुभ्यं नम. क्षितितलामलभूषणाये! तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय ! तुभ्यं नमो जिन ! भवोदधि-शोषणाय ॥ २६ ॥