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१०४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि
अब हम अमर भये न मरेंगे जा कारण मिथ्यात दियो तज
क्यूकर देह धरेंगे। अब हम मरते क्यो हैं ? इसका एक कारण बताते हैं आनदघनजी। प्रश्न होता है न कि व्यक्ति मरता क्यो है ? हमारे पास इसका एक ही उत्तर है कि मरना पड़ता है, नही चाहते हुए भी मरता है क्योंकि जन्म लिया है। प्रश्न है फिर जन्म क्यो लेते हैं ? -आनदघनजी इसका महत्वपूर्ण कारण प्रदान करते हैं। वह कारण यदि समझ लेगे तो मै समझती हूँ कि हम सब उस व्याख्या/व्युत्पत्ति को समझकर हम भी कभी अमर पद प्राप्त कर लेगे। जिसको अमर होना होगा वे “अब हम अमर भये न मरेंगे" का अवश्य चिन्तन करेंगे।
अब हम अमर भये न मरेंगे मर्यो अनत बार बिन समझयो अब सुख दुःख विसरेंगे आनदघन प्रभु निपट अक्षर दो
नही समरे सो मरेंगे . अब हम स्वय को नही समझने के कारण ही मृत्यु होती है। परमात्मा के स्वरूप का चिन्तन करने से उस अमर स्थिति की उपलब्धि हो जाती है। अमर याने देव नही-परमात्मा, भक्त याने आत्मा। भक्त किसी देव पर आधारित नही है, वह स्वतत्र तत्त्व है। इसीलिये जो मृत्यु से पर हो चुके, रागद्वेष से रहित हो चुके उन वीतरागी सच्चिदानद परमात्मा के साथ आत्मा का जो सबध स्थापित कर दे उस स्तोत्र का नाम है भक्तामर स्तोत्र। जो आत्मा को परमात्मा बना देता है। प्रत्येक भक्त इस अमर स्थिति को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक आत्मा परमात्मा हो सकता है। "त्वामेव सम्यगुपलभ्य" कहकर यहा सत्त्व और परिणति का अभिषेक करते हैं। तुम्हें प्राप्त करने वाला अमर पद को प्राप्त कर लेता है। आ गई यहा भक्तामर शब्द की व्याख्या। यहा आकर यह शब्द सिद्ध हो जाता है।
"शिवपदस्य अन्य पथा न शिव" कहकर और इसे स्पष्ट कर रहे हैं कि अमर बनने का, मृत्यु पर विजय प्राप्त करने का, मुक्तिमार्ग का सम्यक् प्रणाम और सम्यक् उपलब्धि से बढ़कर अन्य दूसरा कोई मार्ग 'शिव' याने सुखकर कल्याणकर नही है। परमात्मा को प्रणाम किये बिना उनकी प्राप्ति नही है। और उन्हें प्राप्त किये बिना सारे तप, जप या अन्य सारे ही अनुष्ठानरूप मार्ग अधूरे हैं। __इस अधूरेपन को मिटाने के लिये आचार्य परमात्मा का विशिष्ट स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं। इसमे सापेक्ष दृष्टिकोणो को लेकर विविध धर्मों मे परमात्मा के लिये प्रयुक्त उनके अनेक वाचक शब्द अभिधेय होते हैं। सभी वाच्य अर्थों से परमात्मा का स्वरूप सहज स्पष्ट है। इसे ही प्रयुक्त करते हुए कहा है