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स्वरूप १०३ अनुसार भावनाओ का निर्माण कर परमात्मा से अपना प्रेम-सयोजन स्थापित करता है। इसमें परिस्थिति के हट जाने पर प्रेम में भी अभाव आना शुरू हो जाता है। दूसरे प्रेम मे प्रेमी परिस्थितियों से ऊपर उठा हुआ होता है। परिस्थिति से उसे कोई मतलब नहीं, कोई सरोकार नहीं है। यहा सिर्फ परमात्मा के प्रति भक्तिपरक प्यार है। यह प्यार स्वय एक अधिकार बन जाता है जहा किसी भी प्रकार की याचना या विवशता नहीं होती है। अध्यात्म विज्ञान से भरा प्रेम स्वय एक प्रयोग है। इसे किसी और Guarantee की आवश्यकता नहीं होती है। परमात्मा के साथ ऐसे उत्तम प्रेम में उन्हें प्राप्त करना याने सम्यक् प्राप्त करना है।
क्या होता है इन्हें प्राप्त करके ? यह प्रश्न साधना मार्ग मे प्रवेश करने के पूर्व का है। जिनकी प्राप्ति की खोज की जा रही है, अनुसधान चल रहा है वे आखिर कौन हैं और उन्हें प्राप्त कर क्या हो सकता है ? इसका उत्तर भक्तामर स्तोत्र है, और उसकी सम्पूर्ण सार्थकता प्रस्तुत श्लोक की ये पंक्तिया हैं। जो कहती हैं कि परमात्मा को प्राप्त कर वह होता है जो ससार मे अन्य कइयो को प्राप्त कर कभी नहीं होता है। हमने कइयों को प्राप्त किये पर उनसे वह नहीं पाया जो परमात्मा से प्राप्त करने पर पाया है। इसी झखना में अनेक उपाय किये पर सारे निरर्थक रहे। मागलिक में इसीलिये 'सरण पव्वज्जामि' शब्द का प्रयोग होता है। मैं शरण का स्वीकार करता हूँ। स्वीकार तब होता है तब अन्य विकल्प नही रहते हैं। ___अब कहते हैं उन्हें प्राप्त करने से होता क्या है ? इसके उत्तर में कहा है-"मृत्यु जयन्ति" परमात्मा को प्राप्त करने से मृत्यु पर विजय प्राप्त होती है। मृत्यु को जीतने के लिये कौन प्रयलशील नही है ? मृत्यु पर विजय पाने के लिये अनेक निष्फल उपाय किये जाते हैं। परमात्मा स्वय मृत्युजय हैं उन्हें प्राप्त करने वाला स्वय मृत्युजय हो जाता है। परमात्मा की प्राप्ति स्वय सजीवनी मत्र है। मृत्यु पर विजय जन्म की विजय है। और जन्म पर विजय सारे ससार की विजय है।
प्रश्न होता है इन्हें प्राप्त कैसे किया जाय? इसका उत्तर भक्तामर स्तोत्र के प्रथम श्लोक के “सम्यक् प्रणम्य" शब्द द्वारा मिलता है। नमन तो हमने कई वार किये पर सम्यक् नहीं किये और इसी कारण परमात्मा भी हमें सम्यक् रूप से प्राप्त नहीं हुए। जैसे नमस्कार वैसी उपलब्धि। जद तक परमात्मा सम्यक् रूप से उपलब्ध नहीं होते हैं तब तक न तो मिध्यात्व हटता है, न सत्य प्रकट होता है, न परमात्मा ही मिलते हैं। और जब यह सद कुछ न होगा तो देड़ियाँ कहा से टूटेगी? प्रणाम करते हैं तद तक परमात्मा हम से अलग है, उसकी उपलब्धि होने पर हम ही परमात्मा हैं। परमात्मा के प्रति किये जानेवाले सम्यक् प्राप्ति से "भक्त-अमर" पद को प्राप्त करता है। पुन याद करें "भक्तामर' शब्द को। भक्त याने आत्मा अमर याने देव नहीं परतु वह जिसने मृत्यु को जीत लिया है, जो मृत्यु से ऊपर उठा हुआ है। इसी को योगिराज आनदघनजी कहते हैं