Book Title: Bhaktamar Stotra Ek Divya Drushti
Author(s): Divyaprabhashreeji
Publisher: Prakrit Bharti Academy

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Page 121
________________ स्वरूप ९७ करने वाली माता भी असामान्य होती है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए यहा पर परमात्मा की तुलना सूर्य से और माता की तुलना पूर्व दिशा से कर इसे स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। अब हम सोचेगे कि इस श्लोक के साथ हमारा और परमात्मा का क्या सबध है ? हम में आचार्य सहित भक्ति करनेवाले हम सब आ जाते हैं। देह-सामर्थ्य और भक्ति सामर्थ्य की यहा तुलना की जा रही है। भक्ति एक स्रोत है, प्रवाह है, प्रक्रिया है, गति है, गत्यात्मकता है। भक्ति स्वय मातृस्वरूपा है। भक्ति को वात्सल्य का ही रूप माना है। ऐसी भक्ति जव समस्त रोमो में रम जाती है, आत्मप्रदेशो मे छा जाती है तव चैतन्यरूपा हो जाती है, ऐसी चेतना माता है और यह माता अपने मे परमात्म स्वरूप को जन्म देती है (प्रकट करती है)। ___ भक्ति के अतिरिक्त अन्य कौन सी भावस्थिति है जो परमात्मा को प्रकट कर सके ? जैसे अन्य दिशाए अन्य नक्षत्रो को धारण कर सकती हैं पर रविराज को प्रसव करने का सौभाग्य तो सिर्फ प्राची को ही मिला है वैसे ही भक्ति से ही भगवान प्राप्त होते हैं। परम वात्सल्य भरे हृदय मे ही परमात्मतत्त्व प्रकट हो सकता है, अतिरिक्त भावस्थिति मे नही। प्रस्तुत महाभावो को हृदय मे धारण करना आसान नही है। गहराई मे उतरने पर ही इसका अनुभव हो सकता है। इन भावो का स्वीकार कर लेने पर प्रश्न होता है कि जो कभी नही सोचा वह हुआ और हमारी अनन्त चेतना मे वह परम प्रकट हुआ तो इसका क्या प्रयोजन या परिणाम हो सकता है ? उनको प्राप्त करने से क्या लाभ है ? जिसके अभाव मे हमने क्या खोया था जो भावमय होने पर पा लिया? __इसके उत्तर मे आचार्यश्री स्वय साक्षी बनकर हमारे सामने आते हैं। हम प्रारम्भ से देख रहे हैं कि सभी के मोक्ष की कामना करनेवाले आचार्यश्री के सामने विविध परिस्थितियो का सर्जन आत्मिक-परिवर्तन मे किसी भी प्रकार की बाधा उत्पन्न नही कर रहा है। परिस्थितियो का आना और व्यक्ति की दृढ़ता मे परिवर्तन हो जाना, यह तो ससार का नियम है लेकिन मुनि, सन्त जब साधना के क्षेत्र मे प्रवेश करते हैं तब ऐसी सासारिकता का त्याग करके ही आगे बढ़ते हैं। भक्तामर स्तोत्र इस तरह की हमे सम्पूर्ण प्रतीति कराता है कि परिस्थिति का, प्रतिकूलता का वातावरण बना देना, यह बहुत सहज और स्वाभाविक है। लेकिन भक्तामर स्तोत्र अपनी सर्वोपरि अद्भुतता प्रकट करता है वह यह कि परिस्थिति की प्रतिकूलता व्यक्ति की आत्मिक अनुकूलता में कभी भी बाधा उत्पन्न नहीं कर सकी, दल्कि प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति को व्यक्ति अपनी साधना के बल पर अनुकूल बनाता चला जाता है। यहा पर वेड़ियो के दधनों का टूटने का महत्त्व जितना हम मानते हैं उससे भी अधिक महत्व है आचार्यश्री की निर्द्वन्द्वता का, आचार्यश्री की निश्चलता का, आचार्यश्री की दृढ़ता का। उन्होने प्रत्येक प्रतिकूलता को अनुकूल बनाया। इसीलिए यदि आप अन्वेषण

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