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श्लोक २२ से २७
१४.स्वरूप
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स्वरूप स्वभाव है। जो स्वय से कभी विलुप्त नही होता है वही तो स्वरूप है। जो निरतर प्रज्वलित रहता है, और प्रकटित होता है। स्व अनन्त है, अत स्व के रूप भी अनन्त हैं। अकेले के लिए, अकेले के द्वारा, अकेले की उपलब्धि मे अनन्त को समा देना स्वरूप को पा जाना है। ___स्वरूप याने अपनी चेतना का साक्षात्कार। समग्र विभाजनो मे छटी-बटी ऊर्जा निज-सहज मे जब वापस लौटती है तब स्वरूप का बोध होता है। इस बोध मे वाधक स्वय मे स्वय को भूल जाना है। स्वरूप मे लौटना याने अपने आपको पाना है। स्वरूप से अनभिज्ञ रहना याने अपने आपको खोना है। सपनो का सौदागर बना हुआ व्यक्ति कल्पना और भ्रांति मे सिमटकर अपनी समग्र ऊर्जा को विभाजित कर अवबोध से रहित होता है। __ स्वरूप को पाना ही अस्तित्व की सबसे बड़ी उपलब्धि है। स्वरूप मे रम जाना सच्ची समाधि है और स्वरूप के आनन्द मे स्वय को देखते रहना सम्यक् सम्बोधि है। स्वरूप का आदर करने से स्वरूप की उपलब्धि होती है। जो स्वरूप को उपलब्ध कर लेता है उसे अपने अस्तित्व का बोध हो जाता है। ___ स्वरूप से यह तथ्य झलकता है कि मानी हुई सत्ताए केवल भ्रम के आधार पर जीवित हैं। जब तक प्राणी अपनी प्रसन्नता के लिए अपने से भिन्न की खोज करता है तब तक वह स्वय से ही धोखा करता है। स्वय से ही अचिन्हित रहता है।
स्वरूप का अनुसधान परमात्मा बनने की प्रक्रिया है, परन्तु प्रश्न होता है कि इस स्वरूप को, जो अपना ही निजरूप है कैसे प्रकट किया जाय ? महापुरुषों ने इसका समाधान दिया कि चैतन्य में प्रतिष्ठित होने पर ही स्वरूप उपलब्ध हो सकता है।
जब तक व्यक्ति चैतन्य से बाहर होता है वह वासना से प्रभावित होता है। वासनामय वातावरण मे आन्दोलित होता है और वासना के ऊर्चीकरण से तरगित होता है। परिणामत उसकी ऊर्जाए विरुद्ध दिशा मे प्रगति करती हैं। और उसे अस्तित्व बोध से रहित करती हैं। ___ स्वरूप की अनुभूति से रहित होकर वृत्ति को सजोते रहना-यह अपने आप से नैतिक अपराध है। सृष्टि ने इस अपराधी मनोवृत्ति का एकमात्र दण्ड स्वानुभव से रहित होना बताया है। वृत्तियो से व्याकुल चित्त को पवित्र वातावरण भी पावनता नहीं दे सकता