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९४ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि चित्त प्रसन्ने रे पूजन फल कयु, पूजा अखडित एह रे।
परमात्मा के पूजन का यदि कोई फल है तो वह है चित्त की प्रसन्नता। उनकी पूजा की जाय, स्मरण किया जाय, नमन किया जाय। और, यदि चित्त प्रसन्न नही होता है तो पूजा निष्फल है। पूजा अखडित कैसे हो सकती है ? तो कहते हैं कि वह चित्त की प्रसन्नता से होती है। द्रव्य-स्मरण निरतर नही होता है, पर भाव-स्मरण निरतर होता है और ऐसा निरतर ध्यान निरतर प्रसन्नता लाता है।
परमात्मा के कृपा प्रसाद से प्रसन्न और पुलकित व्यक्ति विश्वास के क्षणो मे सर्व आकर्षणो से मुक्त होकर एक विशेष स्वरूप मे सलीन हो जाता है। प्रसन्नता की यह परिपूर्ण सफलता स्वरूप की उपलब्धि है। इसे हम “स्वरूप" नामक विवेचन से प्राप्त करेंगे।