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९६ भक्तामर स्तोत्र एक दिव्य दृष्टि है। महापुरुषो का सान्निध्य और उनके स्वरूप का चिन्तन साधना क्षेत्र मे स्वरूप जगाने की सबसे बड़ी चुनौती है।
स्वरूप की उपलब्धि जन्म और मृत्यु से पर होने की प्रक्रिया है। फिर भी आचार्यश्री ने परम पुरुष के जन्म को महत्त्वपूर्ण बताते हुए यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि वह जन्म भी महान् है जिसमे स्वय के स्वरूप को उजागर कर अन्य अनेक आत्माओ को स्वरूप का पथ-दर्शन कराया जाय। इसी को आचार्यश्री इस पद द्वारा समझाते हैं।
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्,
नान्या सुत त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वा दिशो दधति भानि सहनरश्मि,
प्राच्येव दिग्जनयति स्फुरदंशुजालम्॥२२॥ स्त्रीणाम् शतानि - स्त्रियो के शतक अर्थात् सैकडो स्त्रिया शतश - सैकडो पुत्रान् -- पुत्रो को जनयन्ति - जन्म देती हैं (परन्तु) त्वदुपमम् - आपके समान सुतम् - पुत्र को अन्या - दूसरी अर्थात् आपकी माता के अतिरिक्त और कोई भी जननी -- माता न प्रसूता
नही जन सकी, नही उत्पन्न कर सकी सर्वा
- सभी दिश
दिशाएँ भानि - नक्षत्रो को, ताराओं को दधति - धारण करती हैं (किन्तु) प्राची एव दिग् - पूर्व दिशा ही, केवल पूर्व दिशा ही स्फुरदशुजालम् - प्रकाशमान किरणो के समूह वाले सहस्ररश्मि - सूर्य को, जनयति - जन्म देती है।
परमार्थ से इस श्लोक में चेतना के अनूठे भव्यत्व को उद्घाटित किया गया है। देहसामर्थ्य के दृष्टिकोण से मोक्षमार्ग के दाता, महामगलकारी परमात्मा को गर्भरूप में धारण करनेवाली माता भी सामर्थ्यवान् होती है। परमात्मारूप अद्वितीय पुत्र को अवतीर्ण