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प्रसन्नता ८५ हे वत्स आत्मा अनत आनद से सम्पन्न है, परिपूर्ण है, उसी में तू अपने मन को लगा, चित्त को रमा, उसी मे अपने अध्यवसायो को सजोये रख।
भक्तामर स्तोत्र परम प्रसन्न स्वरूप परमात्मा से मिलन कराकर उस प्रसन्न स्रोत मे भक्त को अनुस्यूत करता है। इसी विलक्षणता ने इस स्तोत्र की गरिमा बढ़ायी है। काल के परिवर्तन मे भी इसकी यह विशिष्टता आज भी यथावत् है। आज भी भक्तामर स्तोत्र का पाठ करने वाला समस्त दलितो से मुक्त हो, प्रसन्न होता है। कोई इसे स्तोत्र का चमत्कार मानता है, कोई इसे परमात्मा का प्रसाद मानता है तो कोई इसे कर्मक्षय द्वारा क्षायिक भावो की उपलब्धि मानता है। परतु, एक बात निश्चित है कि यह स्तोत्र प्रत्येक काल, प्रत्येक स्थिति और प्रत्येक वातावरण में प्रसन्नता प्रदान करने का गुण प्रकट करता रहता है।
यदि इसे चुनौती ही माने पर एक बात अवश्य ध्यान रहे कि बिना चित्त-शुद्धि के यह प्रसन्नता नहीं मिल सकती। बिना प्रसन्नता के क्षोभ नहीं मिट सकता। प्रत्येक आक्रमणों से क्षुब्ध होने वाला प्राणी चिरप्रसन्नता का पात्र नहीं बन सकता, क्योंकि जिस हृदय में स्थायी प्रसन्नता आती है वहां खिन्नता समाप्त हो जाती है। फलत प्रसन्न व्यक्ति के पास जो भी आता है, प्रसन्न हो जाता है। ___ आचार्यश्री भक्तामर स्तोत्र द्वारा हमें यही सिखाते हैं-परम के स्वरूप को अपने भीतर प्रकट करो, उदित करो। यह उदय ऐसा उदय है जिसका कभी अस्त नही होता है। सम्पूर्ण आत्म-विश्वास के साथ इस प्रसन्न स्वरूप की अपने भीतर प्रतिष्ठा करो। अनुकूलता का भेद भूल जाओ। प्रतिकूलताएँ अपने आप अनुकूल होती जाएंगी। इन्ही भावों को उनकी भाषा मे अब देखे
नास्त कदाचिदुपयासि न राहुगम्य. स्पष्टीकरोषि-सहसा युगपज्जगन्ति।
नाम्भोधरोदर-निरुद्ध-महाप्रभावः,
सूर्यातिशायिमहिमाऽसि मुनीन्द्र । लोके ॥१७॥ मुनीन्द्र।
- हे मुनीश्वर (आप) कदाचित्
- कभी भी अस्तम्
- अस्त अवस्था को
- नहीं उपयासि
- प्राप्त होते हो
- न राहुगम्य
राहु ग्रह के द्वारा ग्रसने योग्य (राहु नवग्रहो मे एक ग्रह है जो सूर्य तथा चन्द्रमा के ऊपर सक्रमण काल मे अपनी छाया डालता है। तब उनका ग्रहण हुआ माना जाता है।)
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